सान्ध्य क्षितिज
पलट गयी करवटें जीवन के उस पन्नों के
इतिवृत्त भी किसका सार देखो कल के कर में ?
दर – दर में बिखरा मिलिन्द मधु के भार कहाँ ?
झख़ के तनु कहर छायी वहीं वारि के गेह में
अनिल – धुआँ , प्रवात – अनल वक्षस्थल को चिर रहा
भव छिछिल में तनती आशीविष के विष में
मेघ विलीन होती सिन्धु में क्या भला और का ?
अट्टालिका के चिरप्यास में करती क्षत – विक्षत परि का
जन – जन में दारुण खड्ग लें कौन दौड़ रहा हृदय प्लव ?
मिथ्या दोष चिता के विष धोएँ कहाँ कलङ्क ?
सिञ्चते शोणित कौतुक भरा किञ्चित भी नहीं तन के
क्षण – क्षण के दामिनी नहीं स्वप्न का भी क्या आसरा ?
यह अंकुर बूँद भी दबे तले विकल – विकल थल है
अश्रु फूटती किसका घूँट में चिर – चिर सृष्टि तप के ?
पतवार धार के त्वरित प्रच्छन्न कहाँ द्युति हुँकार ?
स्वयम्भू भी घूँघट दें स्वत्व को करते निरन्तर मलिन
महासमर रणधीर अंगार के रग – रग के दिग्गज डोले
रण है चक्रव्यूह अभिमन्यु के भीतर – भीतर के समर
विशिख भी कहाँ लौटी कमान से जो तस्वीर प्रस्तर में ?
कैवल्य के पन्थ में भव क्यों नहीं दृग धोएँ सान्ध्य क्षितिज के ?