“सादगी” ग़ज़ल
भरम भी आशिक़ी का दिल मेँ, पालते रहना,
क्या क़यामत था, उफ़, छुप-छुप निहारते रहना।
कभी तो बात करो मुझसे दोस्तों की तरह ,
भले ही बाद मेँ, नुख़्सेँ निकालते रहना।
दो घड़ी,रुख़ से हटाओ न यूँ,उलझी ज़ुल्फ़ेँ,
मुद्दतों, फिर इन्हें, बेशक, सँवारते रहना।
मान लो इक दफ़ा, कि सादगी का तोड़ नहीं,
भले ही, सबसे फिर, शेख़ी बघारते रहना।
रहूँगा, भेष, बदल कर, मैं, शहर मेँ, तेरे,
उम्र भर फिर भले, मुझको तलाशते रहना।
नाम तक साथ मेँ, ले जाऊँगा तसव्वर से,
फिर भले सबको बस, पहचान बाँचते रहना।
जपूँगा नाम, राम का मैं, दर-ब-दर होकर,
फिर तो खिड़की से बस, हुलिया ही ताकते रहना।
कैसे बरदाश्त, करूँगा मैं वो हालत तेरी,
मेरी आहट को ही, हर वक़्त भाँपते रहना।
चला गया जो, न आऊँगा पलटकर हरगिज़,
चाहे जितना ही फिर, मुझको पुकारते रहना।
कभी तो खुलके कहो, इश्क़ है तुमसे “आशा”
,इतना अच्छा नहीं, हर बात, टालते रहना..!
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