सात सवाल
कविता
सात सवाल
भोर हो गई कुछ सुनाया जाए।
अनसुलझे सवालों की गठरी खोल कर दिखाया जाए।
जेहन है इनके हिसाब माँग रहा है।
सभी के कुछ न कुछ जवाब माँग रहा है।
1.पहला सवाल है—भगवान है क्या?
गर है तो पाखंडियों के पास
जाते क्यों हो?
भूखे को देने की बजाय उन्हें देकर
आते क्यों हो?
2.दूसरा सवाल है—बेटी परायी कैसे है?
गर है तो ये कन्या दान बंद करो।
दहेज रूपी ये वरदान बंद करो।
3.तीसरा सवाल है—देश एक है क्या?
गर है तो जाति, धर्म,भाषा नाम पर
विरोध क्यों जताते हो?
छोटी छोटी बात पर बाजार बंद,
बस,गाड़ियाँ क्यों जलाते हो?
4.चौथा सवाल है—माता पिता भगवान है क्या?
गर है तो इन्हें धक्का मार
घर से निकालते क्यों है?
इज्जत बढ़ाने के दिखावे में इन्हें
पशुओं की तरह पालते क्यों है?
5.पाँचवाँ सवाल है—एकता क्या है?
गर एकता का मतलब एक होना है।
तो हम सभी का अलग-2 क्यों बिछौना है?
छुआछूत ये भेदभाव कैसा है?
बेसहारों को गालियांँ……
अपनों से लगाव कैसा है?
6.छठा सवाल है—धर्म क्या है?
गर धर्म का आशय अहिंसा,सद्भावना,प्रेम,भाईचारा है।
तो एक ही वतन का अलग अलग
क्यों बँटवारा है।
7.सातवाँ सवाल है—“मैं” क्या,कौन हूँ?
जब इसां खुद को जान लेगा।
वो इसां होने की अहमियत पहचान लेगा।
अमन,शांति होगी वतन में
न कोई शोर शराबा होगा।
इंसानियत बरसेगी जिस दौर
फिर न कभी खून खराबा होगा।
ये सात सवाल उठते हैं जेहन में
न हमें सोने देते हैं।
न कोई चेहरा मुस्का सकता है…….
न किसी को रोने देते हैं।
रोहताश वर्मा “मुसाफिर”