सागर से मुझको मिलना नहीं है
सागर से मुझको मिलना नहीं है
गंगा एक गांव की भोली भाली बेहद ही खूबसूरत लड़की…उसकी मासूम सुंदरता को वैसे तो शब्दों में ढालना बहुत ही मुश्किल है.. ये समझ लीजिए कि गंगा को देखकर ऐसा प्रतीत होता था मानो जैसे खेतों की हरियाली उसी पर छाई हुई है.. चलती तो यूं लगता फूलों का गुलदस्ता चहलकदमी कर रहा है… हँसती तो बहती नदी भी शरमा जाऐ..हिरनी जैसी आँखें और नागिन जैसी बलखाती चाल…इन सबके ऊपर उसका भोलापन.. उसकी सुंदरता में चार चाँद लगा देता था.. सिर से पांव तक बस, कयामत थी गंगा..।
अल्हड़, मस्त गंगा ..पूरे गांव में घूमती फिरती …कभी गन्ना चूसते हुए तो कभी बकरी के बच्चे को पकड़ने के लिए…।गाँव भर के मुस्टंडे आँखें भरभर कर उसे देखा करते और ठंडी ठंडी आहें भरते थे।गंगा किसी को घास नही डालती थी।
गाँव के सरपंच के बेटे के विवाह का अवसर था…सरपंच के घर खूब रौनक थी…दूर दराज गाँवों से ढेरों मेहमान आए थे ।
गंगा के पिता लक्ष्मणसिंह और सरपंच की गहरी मित्रता थी, सो गंगा का पूरा परिवार उस विवाह में घराती की भूमिका में व्यस्त था।कई सारे इंतज़ामात लक्ष्मणसिंह के ही जिम्मे थे…गंगा की माँ पार्वती घर के कामों को निबटाने मे सरपंच की पत्नी का हाथ बंटा रही थी।गंगा के लिए तो ये विवाह जैसे कोई त्यौहार ,कोई उत्सव जैसा था… नये नये कपड़े पहनना, सजना संवरना और नाच गाने में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेना…
बस यही गंगा के लिए विवाह के मायने थे।
“अरी ओ गंगा …..कछु कारज भी कर लिया कर…सारा दिन ईहाँ से ऊहाँ मटकती फिरे है…”पार्वती ने कहा।
“अरी…अम्मा… कारज करिबे खातर तू जो है… अबहीं तो हमारी खेलन कूदन की उमर है….”गंगा खिलखिलाती हुई बोली।
“अए-हए…देखो तो मोड़ी ,,ताड़ के समान हुई गई है.. कल हाथ पीले हुई गए तो सासरे मा का खिलाएगी…. पाथर….” पार्वती गुस्सा दिखाती हुई बोली।
“अम्मा… तू फिकर कोनी कर ….म्हारे सासरे मा नौकर बांदी होवेंगे… मैं कोनी करुं कारज-वारज….”गंगा ने तपाक से जवाब दिया।
“तोहार मुँह मा गुड की डली हुईओ मोरी लाडो…ऐसन ही सासरा खोजत हूँ तोहरे खातिर…”बीच मे गंगा के पिता लक्ष्मणसिंह बोले।
“ई लो…सेर को सवा सेर…तनिक समझ देबे की जिगा, ऊ की हाँ ऊ मे हाँ मिलावत हो…ओ गंगा के बापू… काहे इत्ता सिर चढ़ावत हो..लड़की जात है…दुई चार गुन सीख लेगी तो सासरे मा काम आवेंगे…”गंगा की माँ तुनक कर बोली।
“अरे ..हो…गंगा की मैय्या…. काहे वाके पीछे पड़ी रहत हो…जब ब्याह होवेगा…तो सब आपन आप बूझ जावेगी..”लक्ष्मणसिंह ने जवाब दिया।
“बापू… ई देखो…ई घाघरा और चोली सिलवाएं हैं… अम्मा की बनारसी साड़ी का….केसन लगा बापू….”गंगा ने पिता से पूछा।
“बहुत ही बढिय़ा है….हमार लाडो एकदम रानी लगे है रानी…”लक्ष्मणसिंह खुश होते हुए बोले।
गंगा लहंगा चोली तन से लगाकर हिल हिल कर खुद को निहार रही थी।
शाम को सरपंच के यहां बारात निकलनी थी।गंगा की माँ और बापू पहले ही वहाँ पहुंच चुके थे।गंगा सज संवरकर जब वहाँ पहुंची तो, सबके मुँह खुले के खुले रह गए… ऐसा लग रहा था कि कोई परी आसमान से उतर आई हो।
हर कोई गंगा को ही देख रहा था… जैसे इतना सौंदर्य कभी किसी ने न देखा हो।सबको अपने को देखते हुए देखकर गंगा शरमा गई।शर्म के मारे उसके गाल और गुलाबी हो गए…. बला की खूबसूरत लग रही थी गंगा।
दूसरे गाँवो के सरपंच भी आऐ थे….सीमनगांव के सरपंच और उनका बेटा निहाल भी इस विवाह में आए थे….निहाल बांका जवान था..गठा हुआ शरीर सौष्ठव और रोबदार चेहरा मोहरा… झबरीली मूंछें और मूंछों के नीचे मुस्कुराते गुलाबी होंठ..।
गंगा और निहाल ने एक साथ एक दूजे को देखा।निहाल से नज़रें मिलते ही गंगा का दिल ज़ोरों से धड़कने लगा और निहाल तो बस एकटक
गंगा को देखे जा रहा था… मानों उसकी आँखें गंगा के सिवाय कुछ देखना ही नहीं चाहती।
“इतनी सुंदरता…. उफ्… ये लड़की है या कोई अप्सरा…. अंग अंगसे जैसे मधु टपक रहा है….”मन ही मन निहाल बोला , उसकी तो जैसे साँसें ही रुक गई थी…।
“चलो चलो …जल्दी करो…वर निकासी का समय हो गया”..किसी ने कहा।
गंगा और निहाल की तंद्रा टूटी।
बारात गई और बारात वापिस भी आ गई…. लेकिन गंगा और निहाल तो जैसे एक दूसरे मे ठहर गए थे…प्रेम का बीज फूट चुका था.।
“गंगा…. किसी ने धीरे से गंगा को पुकारा।
गंगा ने देखा एक कोने मे निहाल खड़ा था… उसने गंगा को इशारा किया कि घर के पीछे आ जाओ।
गंगा का दिल ज़ोरों से धड़क रहा था, पर निहाल से मिलने की बेताबी भी थी… सबसे नज़रें बचाकर गंगा घर के पिछवाड़े पहुंच गई… जहाँ निहाल बेसब्री से उसका इंतज़ार कर रहा था।
“गंगा….. निहाल ने गंगा के कान मे कहा।
गंगा का पूरा शरीर सिहर गया….. मानों निहाल की साँसें, रक्त के साथ उसकी धमनियों मे प्रवाहित होने लगी हों।
“हम आज अपने गांव वापिस जा रहे हैं…. निहाल ने गंगा से कहा।
गंगा की आँखों मे आँसू आ गए और उसने पलकें उठाकर निहाल को देखा।
“अरी पगली… रोती काहे हो…अब हम तुम्हें ब्याह करके सदा के लिए साथ ले जाएंगे…. निहाल ने गंगा के आँसूपोछते हुए कहा और बाँहों मे जकड़ लिया।
गंगा थरथर कांप रही थी, निहाल ने उसका माथा चूम लिया…. गंगा को ऐसा एहसास पहले कभी न हुआ था… वह लता की तरह निहाल से लिपट गई…. निहाल उसे बाँहों मे उठाकर पिछवाड़े मवेशियों के लिए बनी कोठरी में ले गया…. गंगा सुधबुध खो बैठी थी और निहाल बेताब था….उस अंधेरी कोठरी में अचानक बिजलियाँ चमकी…कई सारे जुगनू टिमटिमाने लगे….जज़्बातों की बारिश जैसे थमने का नाम ही नहीं ले रही थी… बांध टूट गए…. जलतरंग बजने लगे और साँसों की शहनाईयों की मध्धम ध्वनि से वातावरण रोमानी हो गया।
कुछ ही पलों में सबकुछ शांत था…. मानों एक भयंकर तूफान आया और फिर थम गया…. लेकिन छोड़ गया कुछ निशानियां… जिन्हें अब गंगा समेट रही थी।
“गंगा….. मैं जल्दी ही आऊँगा…. और तुम्हें अपनी दुल्हन बना कर ले जाऊंगा….”निहाल का स्वर गूंजा।
गंगा शांत थी….उसे कुछ कहने सुनने का समय ही न मिला…. निहाल एक झटके में फुर्ती से कोठरी से बाहर निकल गया।
गंगा पिघली जा रही थी… निहाल के प्रेम और इस अनोखे एहसास से घिरी गंगा कोठरी से बाहर निकली…।निहाल अपने पिता के साथ वापिस अपने गाँव के लिए निकल चुका था।
गंगा नही जानती थी कि, जिस पर उसने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया है… वो कौन है, किस गाँव का है….और उसे लेने कब आएगा ।
मदमस्त लहराती चंचल गंगा एकाएक शांत और गंभीर हो गई थी…. रात दिन आहट रहती कि अब निहाल आए या उसकी कोई खबर ही आ जाऐ….पलछिन… दिन रात पहर…कई माह बीत गए.. पर निहाल नहीआया…।
पार्वती और लक्ष्मणसिंह समझ नही पा रहे थे कि खिली खिली सी उनकी लाडो क्यों पल पल मुरझा रही है।
नदी किनारे बैठ आँसू बहाती गंगा हताश हो गई… उसका धीरज अब जवाब दे चुका था… अम्मा बापू का बियाह के लिए जोर देना… जैसे गंगा को भीतर ही भीतर मार रहा था।
एक दिन नदी की आती जाती लहरों को देखते देखते… जाने कौनसा तूफान गंगा के दिल में उठा… कि उसने नदी मे छलांग लगा दी…गंगा डूबने लगी…उसका दम घुटने लगा…साँसें उखड़ने लगीं… एकाएक हाथ पैर मारती गंगा के हाथ एक लकड़ी की छिपट्टी आ गई…. गंगा ने उसे पकड़ लिया…. और उस छिपट्टी के सहारे गंगा नदी के किनारे आ गई।
पानी में कूदने, डूबने और मौत का सामना कर लौटी गंगा के मन मे एक ही विचार बार बार कौंध रहा था कि जानबूझकर पानी में कूदने या अन्जाने मे पानी में गिरने पर इंसान कितना छटपटाता होगा…कितनी तकलीफदेह मौत होती होगी…. उस समय अगर उसे अगर एक छिपट्टी मिल जाऐ ….जैसे मुझे मिली… तो कितनों के प्राण बच सकते हैं….बस….उसने कुछ सोचकर जंगल से लकडियाँ तोड़ी और उन लकड़ियों की छिपट्टीयों से एक नैय्या तैयार की..और उतार दी..नदी मे…नैय्या तैरने लगी।
अब गंगा ने निश्चय किया कि उसके जीवन का एक यही ध्येय होगा… वह इस नैय्या से सबको पार लगाएगी और डूबतों के प्राण बचाएगी…. उसकी छिपट्टी अब किसी को डूबने नही देगी।
गंगा अब छिपट्टी वाली गंगा कहलाने लगी।गरीब ज़रूरतमंदों को नदी पार कराने वाली गंगा..डूबतों के प्राण बचाने वाली गंगा…।
अम्मा बापू की उसके आगे एक न चली….गंगा ने ब्याह के साफ़ मना कर दिया।कह दिया उसने कि ब्याह की बात की तो नदी में कूद जाऊंगी और अबके छिपट्टी नही पकडू़गी।
अम्मा बापू ने हार मान ली।
महीनों बीते…. सालों गुज़रे…. छिपट्टी वाली गंगा न बदली …वह डटी रही नदी किनारे…. पार करवाती रही नदी…. न जाने कितनी जानें बचाई उसकी छिपट्टी की नाव ने।आसपास के सभी गांवों मे ख्याति हो गई छिपट्टी वाली गंगा की…..।
इस बार बारिश बहुत हई….कई गाँव बाढ से उजड़ गए…. कितनों के खेत खलिहान, घर जमीन सब बाढ़ की भेंट चढ़ गया…. गंगा के गांव में भी बाढ ने तहलका मचाया…. लेकिन गंगा औरों की तरह गांव छोड़कर भागी नही…. बल्कि बाढ मे डूबे लोगों को बचाकर उनकी देखरेख करती रही।
बाढ का पानी अब उतार पर था….गंगा अपनी छिपट्टी के साथ नदी पर बैठी थी… तभी किसी ने नदी में छलांग लगा दी।
गंगा ने लपककर छिपट्टी दौड़ा दी।उसने देखा एक युवक डूब रहा है…. घबराकर हाथपैर मार रहा है…. गंगा ने पास पहुंच कर उसे बड़ी मुश्किल से अपनी नैय्या पर चढ़ा लिया।उसकी पीठ दबाकर पानी निकाला।
“काहे कूदे….?”गंगा ने औंधे पड़े उस.युवक से पूछा।
“मेरा सबकुछ लुट गया…. खेत खलिहान… घर जायदाद सब बर्बाद हो गया और परिवार ….सब बह गए… अब मैं जीकर क्या करुंगा… क्यों बचाया तुमने….”युवक ने उल्टा लेटे हुए ही जवाब दिया।
“तूफान तो आतें हैं और चले जाते हैं… पर ईका ये मतलब तो नाहीं कि… जीवन खतम हुई गवा….एक तूफान से घबराना का…ऊपर वाले ने जीवन दिया है.. जीने के खातिर… धीरज रखो…हिम्मत करो और फिर जीना सुरु करो….हो सकत है कि कुछ बहुत अच्छा हो जाए…”गंगा ने कहा।
युवक पलटा…..गंगा का मुँह खुला ही रह गया।
“निहाल….”गंगा बुदबुदाई।
“गंगा….”निहाल गंगा को देखकर भौंचक्का रह गया।
“ये मेरे कर्मों का ही फल है….मैंने तुम्हें धोखा दिया… एक निश्छल के साथ छल किया… उसी का पाप मुझे लगा”…निहाल रोते हुए बोला।
गंगा की आँखों से झरझर आँसू बह रहे थे, मानो गंगा मे से एक नई गंगा बह रही हो.
“गंगा… तुम तो पावन हो…तुम्हारे स्पर्श से सबके पाप धुल जाते हैं… मैं पापी हूँ…. पर क्या तुम मुझे प्रायश्चित का एक मौका दोगी…”? निहाल ने गंगा की आँखों में आँखें डालकर पूछा।
गंगा अवाक थी, उसने निहाल पर एक तीक्ष्ण निगाह डाली, और बोली-
“गंगा तो पापहारिणी है, दुखनाशिनी है, वह दूसरों के दर्द को हरने वाली है, जो भी उसकी शरण मे आता है, निष्पाप, निष्कलंकित हो जाता है , तुमने पश्चाताप कर लिया, तुम्हारे तन मन का मैल धुल गया,लेकिन तुम्हारा मेरा मेल संभव नहीं, क्योंकि गंगा कभी उल्टी नही बहती , आओ तुम्हें किनारे लगा दूं,क्योंकि बीच मंझदार छोड़ना मेरी फ़ितरत नही है”
निहाल को किनारे पर उतारकर , गंगा की छिपट्टी चल पड़ी, निहाल देखता रहा दूर तक ,उथली लहरों पर गंगा को दृढता से चप्पू चलाते हुए।
नदी की कलकल से यही स्वर सुनाई दे रहे थे
“सागर से मुझको मिलना नही है
सागर से मिलके मैं खारी हो जाऊंगी”
नम्रता सरन”सोना”