सागर का मैं खारा पानी
***सागर का मैं खारा पानी***
************************
मैं सागर का खारा पानी हूँ
निज चाल में मुझे बस बहने दो
बहती लहरों में उफान आया
ज्वार भाटा अकेले सहने दो
सरिता का मीठा जल जो आया
खारेपन में मधु बस मिलने दो
हीरे मोती तल में बिखरें हैं
तलहटी पर ही बिखरने दो
गमों का यान है जो गुजर रहा
मत रोको उसे झट गुजरने दो
साहिल पर पानी यहाँ सूख गया
रेत के ढ़ेर को बस उड़ने दो
दुखों का दरिया बहुत गहरा है
गम के गोलों को बस डूबने दो
काले मेघ भी खूब गरज रहे
सीने पर जी भरकर बरसने दो
जल बहाव की शैली बिगड़ गई
मनसीरत तट पर ही थमने दो
************************
सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)