सांझ
शीर्षक – सांझ
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सांझ सवेरे हम घर होते हैं।
जिंदगी और जीवन जीते हैं।
दिन भर हम सब मेहनती है।
बस सांझ ढले हम सोचते हैं।
एक दूसरे से कहते सुनते हैं।
दिल और चाहत सच कहती हैं।
हां सांझ सवेरे ही हम तुम हैं।
बस यही पल सांझ के होते हैं।
चल बस अब सांझ ढले चलते हैं।
तेरे मेरे सपने और सांझ होती हैं।
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नीरज कुमार अग्रवाल चंदौसी उ.प्र