सांझ
ढलती सांझ हूं मैं,
उगते सूरज सी तपस-
कहां से लांऊं?
सुलगता है दिल ,
तो सुलगने दो।
यह वह आग नहीं,
जिससे धूंआ निकले।
भड़कता है शोला
तो भड़काने दो।
जीवन की अनमोल रेखांएं
जिन्हें जोड़नी है जोडने दो।
भरने वह अधभरे रंग
भरने दो-
पूरा करना है वह चित्र
थोड़ी गहराई देकर
थोड़ा विस्तार देकर
सृष्ठा बनना है जिसे,
दृष्टा भी बनने दो।
आगत के धैर्य धरें
चित्र जो अधूरा है
उसे पूरा करने दो।
ढलती सांझ हूं मैं,
अंधेरे की ख़बर है,
मत आस करो उस तपस की
थोड़ा सुस्ताना है, बस सुस्ताने दो।।
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