सांझ
रोज़ सांझ आती है
नये बदन में
कभी मुस्कुराकर
कभी ग़मग़ीन
एक लम्बी जम्हाई लिये
लौट जाती है
अनायास
कोई नहीं आता
असभ्य सांझ तुम्हे
ओट चाहिए
सुराही सी सांझ
कभी प्यालों में
छलकती है
कभी आंखों में
तैर जाती है
सांझ बस सांझ
मनोज शर्मा
रोज़ सांझ आती है
नये बदन में
कभी मुस्कुराकर
कभी ग़मग़ीन
एक लम्बी जम्हाई लिये
लौट जाती है
अनायास
कोई नहीं आता
असभ्य सांझ तुम्हे
ओट चाहिए
सुराही सी सांझ
कभी प्यालों में
छलकती है
कभी आंखों में
तैर जाती है
सांझ बस सांझ
मनोज शर्मा