साँझ का बटोही
कौन पूछे
साँझ के हारे पथिक से,
जो चला है
हार कर हर दाँव अपना
चल रहा हर पग अकेला
आसरा किसका लिए?
वह बढ़ रहा
किस लक्ष्य को पाने?
चला जाता है जो चुपचाप
‘ओ बटोही, साँझ के’
क्यों चल रहे
डगमग पगों से
रे पथिक
बाजी कहाँ पर हार आए?
उम्र के इस मोड़ पर,
बोलो,
लकुटि क्या हो गई
बोलो तुम्हारी?
जो बनाई उम्र भर तुमने
उमंगों से हुलस कर वाटिका
देखकर जिस वाटिका
के फूल/कलियाँ
झूमते थे तुम
हुमक कर
वह चमन क्यों छोड़ आए?
ओ बटोही!
तुम कहाँ पर छोड़ आए
ज्योति आँखों की रुपहली
कहाँ तज आए
उमंगों से भरी
सपनों की देहली?
छोड़ आए साथ के
संगी सभी
बोलो बटोही
अब अकेले ही
चले जाते हो
बिन दीपक लकुटि के
ओ बटोही,
रुक!
पलट कर देख
कोई
साथ चलता है तुम्हारे
शेष दिन के हैं
ये साए
कितने सारे
रुक! पलटकर देख
ये आकाश निर्मल
फिर कोई ज्योतित किरण
शायद उछाले
फिर कोई उम्मीद तेरी
देहरी पर।
हार मत
रुक!
प्यार का दीपक जला ले