-: साँझ का दीया :-
बुझा दे साँझ का दिया कोई..चारो ओर खामोशी फैली है
मेरा दर्द भी तन्हा रात की तरह अकेली है
निहारती रहती हूं अपने किस्मत की लकीरों को
नही तेरे नाम की कोई लकीर , सुनी पड़ी हथेली है
नही भाता है दिल को आंखों में काजल का अंधेरा
अंधेरे ने गोद में सुला लिया मुझे, जैसे मेरी कोई सहेली है
किन रास्तो में भटक रहा है ये मन बावरा
सुलझ के नही सुलझती जाने कैसी पहेली है
आंखों को रोज़ झूठे सपने दिखाने का वादा कर सुलाती हूँ
ये ख़ुदा भी मुझसे खेल रहा, कैसी अठखेली है