सहायता-प्राप्त माध्यमिक विद्यालय में प्रबंधक की भूमिका का निर्वहन*
#प्रबंधकत्व_के_पंद्रह_वर्ष
“अब दस्तखत भी बहुत मुश्किल से होते हैं । तुम मैनेजर बन जाओ ।” -पिताजी के स्वर में मैंने पहली बार वेदना को महसूस किया। अब तक मुझसे प्रबंधक बनने के लिए वह कई बार कह चुके थे और मैं टाल देता था । वह मान जाते थे । मुझे क्या पता था कि ऐसा करके मैं उनकी परेशानियों को बढ़ा रहा हूं। गिरते हुए स्वास्थ्य के कारण वह अपनी जिम्मेदारी का बोझ मेरे कंधों पर डालने के इच्छुक थे और मैं गहराई से विषय पर सोचे बगैर ही उनसे कह देता था -“ऐसा ही चलता रहे ! क्या करना है !” अब यह स्पष्ट हो गया था कि मेरी लापरवाही उनके जीवन में चिंता का कारण बन रही थी।
पिताजी की खुशी ही मेरे लिए सब कुछ थी । उनकी खुशी से बढ़कर मेरे जीवन में और कुछ नहीं था । मैं उन्हें खुश देखना चाहता था । अतः मैंने अपने चेहरे पर भरपूर मुस्कान और खुशी भरते हुए उनसे कहा ” मैं मैनेजर बन जाऊंगा । कोई बात नहीं है ।”
मेरा इतना कहते ही उनके चेहरे पर न जाने कहां से खुशियों का फव्वारा छूट पड़ा। वह अत्यंत प्रसन्न हो गए । उनकी सारी परेशानियां छूमंतर थीं। ऐसा लगता था ,अब उन्हें कोई चिंता नहीं थी । यही तो मैं चाहता था । पिताजी को खुशी तो हो रही थी लेकिन फिर भी उनके दिमाग में यह बात चल रही थी कि कहीं मैं अपनी कही हुई बात से बिदक न जाऊं और फिर इस विषय को टालने की बात न कह दूं । अतः उन्होंने मुझे समझाया कि ” मैनेजर बनकर सिर्फ कागजों पर कुछ हस्ताक्षर करने होते हैं । कोई बड़ा काम नहीं होता । ” मैंने किसी छोटे बच्चे की तरह उनके आगे सिर हिला दिया । वह निश्चिंत थे । इससे पहले वह उस समय के बड़े बाबू जी श्री हरीश गुप्ता को एक बार बुला कर कागजी कार्यवाही करने के लिए कह चुके थे लेकिन मेरी टालमटोल से बात टलती जा रही थी । अब इस बार बात पक्की थी । पुराने बड़े बाबू जी रिटायर हो चुके थे। नए बड़े बाबू जी को बुलाकर उन्होंने सब औपचारिकताएं कराईं और इस तरह मुझे सुंदर लाल इंटर कॉलेज ,रामपुर का प्रबंधक बना दिया । उसी वर्ष 26 दिसंबर 2006 को उनका निधन हो गया ।
जुलाई 1956 में विद्यालय की स्थापना के बाद उसके संचालन का काम सब कुछ मेरी आंखों के सामने होता रहा था। एक तरह से मैं उस मछली की तरह था जो जन्म से ही समुद्र में तैर रही थी यद्यपि अब उसे तैरते हुए स्वयं को अलग से रेखांकित करना था।
संचालन का आधार : समाज सेवा
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विद्यालय के संचालन में पिताजी की कार्यप्रणाली का आधार समाज सेवा की भावना थी । उसके साथ बहुत सी प्रवृत्तियां जुड़ती चली गईं अथवा यह कहिए कि समाज सेवा की भावना का विस्तार ही उनकी कार्यप्रणाली की रूपरेखा बन गयी। विद्यालय से किसी प्रकार का आर्थिक लाभ प्राप्त न करना ,अध्यापकों आदि के साथ सद्व्यवहार तथा सम्मान का भाव रखना, किसी प्रकार का विवाद खड़ा न करना तथा जिस कार्य में विद्यालय का हित हो उसी कार्य की सिद्धि के पथ पर आगे बढ़ना -यह सब पिताजी की कार्यप्रणाली से मैंने सीखा था । अब इन्हीं पद चिन्हों पर मुझे अनुसरण करना था ।
सबसे पहला काम
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सबसे पहला काम मैंने विद्यालय में मैनेजर-रूम को स्कूल के किसी भी काम में उपयोग में लाने का आदेश दिया । मैनेजर रूम पिछले 50 वर्षों से पिताजी का ताला पड़ा हुआ एक कमरा हुआ करता था । मुझे लगा कि इसका कोई खास उपयोग तो होता नहीं है ,अतः क्यों न इस कमरे को स्कूल के किसी भी काम में उपयोग में लाने के लिए सौंप दिया जाए । वह कमरा मेरे आदेशानुसार विद्यालय के अनेक कार्यों के लिए उपयोग में आने लगा । यद्यपि बोलचाल में वह मैनेजर-रूम के नाम से लंबे समय तक पहचाना और जाना जाता रहा ।
वेतन-बिल पर हस्ताक्षर
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पिताजी का यह कहना सही था कि मैनेजर बनकर कोई खास काम नहीं होता। बस कुछ कागजों पर हस्ताक्षर करने होते हैं। हमारा विद्यालय सहायता-प्राप्त था । अतः हस्ताक्षरों में सबसे पहला और अनिवार्य कार्य वेतन-बिल पर हस्ताक्षर करने का होता है । हर महीने अध्यापकों और कर्मचारियों का वेतन सरकारी खजाने से दिया जाता है। उसमें प्रबंधक के हस्ताक्षर सामान्यतः एक औपचारिकता होती है । डेढ़ – पौने दो करोड़ रुपए का वेतन हर साल प्रबंधक के हस्ताक्षरों के साथ विभाग द्वारा बाँटा जाता है । शुरू के वर्षों में एक चेक आता था ,जिस पर मासिक अनुदान की राशि अंकित होती थी। अब प्रक्रिया के सरलीकरण की दृष्टि से बिना चेक के कार्य संपन्न हो जाते हैं । प्रबंधक के हस्ताक्षरों का अर्थ केवल इतना ही रहता है कि वेतन-बिल तैयार करने में अगर कोई भारी चूक दिखाई पड़ रही है तो वह दूर की जा सके । कई मामलों में वेतन बिल बड़ा महत्वपूर्ण हो जाता है । लेकिन यह सब विवाद की बातें होती हैं जो 15 वर्षों में मेरे सामने कभी नहीं आईं। सभी अध्यापकों का वेतन पचास हजार रुपए से ऊपर है। प्रधानाचार्य को एक लाख रुपए से ज्यादा मिल रहा है । उच्च वेतनमान का लाभ विद्यालय को इस दृष्टि से मिल रहा है कि श्रेष्ठतम प्रतिभाएँ इंटर कॉलेजों में अध्यापन-कार्य के लिए आकृष्ट हो रही हैं तथा अपने जीवन का लक्ष्य इसी को बना लेती हैं । इस तरह विद्यालय को स्थायित्व के साथ प्रगति पथ पर आगे बढ़ने का अवसर अनायास ही मिल जाता है।
अध्यापकों का चयन आयोग द्वारा : एक सकारात्मक पक्ष
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हर सिक्के के दो पहलू होते हैं । अध्यापकों के रिक्त पदों का चयन आयोग के द्वारा किया जाना तथा अध्यापकों आदि को सरकारी खजाने से वेतन दिए जाने के कारण जहां एक ओर सरकारी भाव विद्यालय की कार्य प्रणाली में प्रबल हुआ है तथा ऐसा लगता है कि प्रबंधक का प्रभाव कम हो गया है वहीं दूसरी ओर मैं यह महसूस करता हूं कि अध्यापकों के चयन का दायित्व सरकार ने अपने हाथ में लेकर प्रबंधकों को एक बड़ी भारी मुसीबत से बचा लिया है । अगर अध्यापकों का चयन प्रबंधकों के हाथों में होता ,तब इस कार्य में अनेक जटिलताएं आतीं , भयंकर मारामारी की स्थिति हो जाती , भ्रष्टाचार के फैले हुए महासमुद्र में एक आपाधापी की स्थिति बन जाती । ऐसे में मेरे जैसे व्यक्ति के लिए यह कार्य भयावह चुनौतियां लेकर उपस्थित होता । समाज सेवा की भावना से विद्यालय चलाने के कार्य में दिक्कतों का व्यर्थ बढ़ते रहना किसी भी प्रकार से उचित नहीं कहा जा सकता । मैंने महसूस किया है कि आयोग से चयनित जितने भी अध्यापक आते हैं ,वह सब सुयोग्य तथा उत्तम आचरण वाले होते हैं । अगर मेरे हाथ में मनमाने तौर पर भी अध्यापकों की नियुक्ति का अधिकार दे दिया जाता ,तो मैं शायद इनसे बेहतर अध्यापक नियुक्त नहीं कर पाता ।
सरकारी खजाने से वेतन ने कई मुश्किलें हल कर दीं
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जहां तक सरकारी खजाने से वेतन देने का प्रश्न है ,इसने तो चमत्कार ही कर दिया। अब मुझे विद्यालय चलाने के लिए किसी प्रकार की अतिरिक्त चिंता करने की जरूरत नहीं है । छात्रों की संख्या कितनी है तथा हर कक्षा में विद्यार्थियों से कितनी फीस आ रही है ,इसका कोई संबंध अध्यापकों के वेतन-वितरण से नहीं होता । फीस चाहे जितनी आए ,अध्यापकों का वेतन उतना ही दिया जाएगा जो उनके वेतनमान के अनुसार निश्चित किया गया है । यह सरकार सुनिश्चित करती है । इसका सबसे बड़ा सुपरिणाम हमें कोरोना काल में तथा लॉकडाउन की अवधि में देखने को मिला । छात्र विद्यालय से नदारद थे । एडमिशन न के बराबर थे । फीस की आमद नगण्य थी । लेकिन मैं निश्चिंत था कि अध्यापकों को वेतन सरकार के द्वारा दिया जाना है । अतः विद्यालय चलता रहेगा । यही हुआ । अध्यापकों का प्रतिमाह वेतन बिल तैयार करके उनके खातों में वेतन जमा होता रहा । यह सब सहायता-प्राप्त माध्यमिक विद्यालयों के सकारात्मक पक्ष को इंगित करता है ।
सत्र 2020 – 21 के दौरान जब पूर्व शिक्षक-विधायक श्री ओम प्रकाश शर्मा को विद्यालय में श्रद्धांजलि दी गई ,तब मैं अपनी पहल पर उस श्रद्धांजलि सभा में शामिल हुआ और मैंने इस बात को रेखांकित किया की पचास वर्ष पूर्व जो सरकारी खजाने से शिक्षकों को वेतन दिए जाने की शुरुआत की गई थी ,वह शिक्षा के क्षेत्र में एक बड़ा सकारात्मक कदम था । मैंने इस बात को भी देखा है कि वेतन सरकारी खजाने से देने के कारण नाम-मात्र की फीस पर हम विद्यार्थियों को शिक्षा देने में समर्थ हो सके हैं। अगर इसका सीधा संबंध वेतन से होता तो फीस कई गुना बढ़ गई होती तथा ऐसे में गरीब छात्रों के सामने फीस देना एक बड़ी भारी समस्या होती । सरकारें आती और जाती रहती हैं लेकिन सहायता-प्राप्त विद्यालयों में कम फीस पर शिक्षा उपलब्ध कराने का निर्णय एक जन-कल्याणकारी समाज की दिशा में उठाया गया सराहनीय और महत्वपूर्ण बल्कि युग-परिवर्तनकारी कदम कहा जाएगा ।
छात्रों की बौद्धिक चेतना का उन्नयन
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मैं यह चाहता हूं कि उच्च बौद्धिक चेतना से भरे हुए छात्र हमारे विद्यालय से शिक्षा ग्रहण करके निकलें। वे न केवल अपने विषय के पारंगत हो अपितु सर्वतोमुखी उनकी प्रतिभा का चमत्कार नभ में बिखरे और सब को चमत्कृत कर दे। अध्यापकों के परिश्रम में कोई कमी नहीं कही जा सकती ,लेकिन फिर भी न जाने क्यों मेरा अनुमान है कि छात्र उस अनुपात में ज्ञान-पिपासु भावना के साथ नहीं आ पा रहे हैं ,जैसा कि हम चाहते हैं । वर्ष 2020 – 21 में ही हमने विद्यालय के छात्रों की एक काव्य-गोष्ठी रखना शुरू की । इसमें अच्छी प्रतिभाएं सामने आईं । इसका अर्थ यह है कि योग्यताओं का अभाव नहीं है । बस उन्हें परिष्कृत करने अथवा प्रकाश में लाने की जरूरत होती है ।
अनावश्यक हस्तक्षेप न करना
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बात प्रबंधक के हस्ताक्षरों की चल रही थी । विद्यालय सहायता- प्राप्त होने के कारण अनेक मामलों में प्रबंधक के हस्ताक्षरों की आवश्यकता नहीं होती है । यह विषय कई बार रोजमर्रा के कार्यों से संबंधित भी होते हैं ,कई बार नीतिगत भी होते हैं । अनेक मामलों में यह वित्तीय निर्णय से संबंध रखते हैं । अगर प्रबंधक के हस्ताक्षरों की किसी जगह पर जरूरत नहीं है ,तो इसका सीधा-साधा अर्थ यह है कि प्रबंधक चाहे तो उस जगह पर जाने से बच सकता है बल्कि देखा जाए तो उस कार्य में शासन की नीति यही है कि वह प्रबंधक के कार्य-क्षेत्र में नहीं आता । अतः अति आवश्यक होने पर ही अथवा शिकायत प्राप्त होने पर ही प्रबंधक को उन मामलों में हस्तक्षेप करना चाहिए । मेरी नीति उन सब मामलों में अनावश्यक हस्तक्षेप से बचने की है ,जिनके लिए शासन ने मुझे उत्तरदायित्व नहीं दिया । ऐसा करके जहां एक दृष्टि से देखा जाए तो प्रबंधक के अधिकारों की कटौती होती है, वहीं दूसरी ओर हम इसे सकारात्मक रूप से इस प्रकार ग्रहण कर सकते हैं कि प्रबंधक के कंधों पर कार्य का बोझ कुछ कम हो गया है ।
अध्यापकों को नियुक्ति पत्र भेजकर कार्यभार ग्रहण कराने का दायित्व
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अध्यापकों को चयन करके भेजने का काम सरकार का है लेकिन उन्हें नियुक्ति पत्र देकर कार्यभार ग्रहण कराना ,यह प्रबंधक के हस्ताक्षरों पर छोड़ दिया गया है । मेरी नीति जल्दी से जल्दी अध्यापकों को कार्यभार ग्रहण कराने की रही है । मैं जानता हूं कि वह शिक्षा ग्रहण करके बड़ी मुश्किल से नौकरी पर लगे हैं । परिवार की सारी आशाएं उन पर टिकी हैं। ऐसे में चयनित होने के बाद भी उन्हें लटकाए रखने का कार्य अमानवीय ही कहा जाएगा । अतः जैसे ही मेरे पास विभाग द्वारा चयनित अभ्यर्थी का नाम प्राप्त होता है ,मैं तेजी के साथ उसे नियुक्ति पत्र देकर ज्वाइन कराने की प्रक्रिया पूरी कर देता हूं । इससे अध्यापक को यह फायदा होता है कि उसका वेतन जल्दी से जल्दी उसे प्राप्त होने लगता है । अन्यथा ज्वाइनिंग में जितनी देर लगेगी ,वेतन मिलना शुरू नहीं होगा ।
अध्यापकों के स्थानांतरण
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अनेक बार शिक्षक विद्यालय में जॉइनिंग तो कर लेते हैं लेकिन उनका मूल आकर्षण अपने गृह-जनपद में अध्यापन कार्य करना ही रहता है । ऐसी स्थिति में उनका एक पैर हमारे विद्यालय में तथा दूसरा पाँव अपने गृह-जनपद में किसी रिक्त स्थान की खोज में लगा रहता है । यह स्वाभाविक है । हर व्यक्ति अपने घर के आसपास रहना चाहता है । अपने परिवार-जनों के साथ जीवन बिताना चाहता है । घर से कोसों दूर रहना किसे अच्छा लगेगा ? ऐसे अध्यापक एक वर्ष की अवधि पूरी करने के बाद जब भी उन्हें अवसर मिलता है ,स्थानांतरण (ट्रांसफर) के लिए मेरे पास आते हैं और कहते हैं कि वह अपने घर के पास के विद्यालय में ट्रांसफर के इच्छुक हैं । मैं उनके चेहरे पर गृह जनपद में जाने की संभावनाओं से जो चमक पैदा होती है ,उसे देख पाता हूं । यद्यपि मुझे मालूम है कि विद्यालय में अध्यापकों के रिक्त पद कितने वर्षों तक भरे नहीं जा पाते हैं । किस मुश्किल से अध्यापक मिलते हैं और अब यह जो चले जाएंगे ,उसके बाद आयोग से रिक्त पद पर अध्यापक का चयन न जाने कब होगा ? लेकिन इन सब कारणों से अगर मैं उन्हें ट्रांसफर की अनुमति नहीं देता हूं ,तब यह उनके साथ भयंकर अन्याय होगा और वह एक प्रकार से कैद जैसी स्थिति में स्वयं को महसूस करेंगे । अतः मैं अपने हस्ताक्षरों का उपयोग करता हूं और उन्हें नियमानुसार ट्रांसफर की अनुमति प्रदान कर देता हूं । जब अध्यापक हमारे विद्यालय से ट्रांसफर होकर जाते हैं ,तब उनकी विदाई के समय दुख भी होता है लेकिन यह संतोष भी रहता है कि हमने उनके साथ जितना अच्छा कर सकते थे तथा हमारे हस्ताक्षरों में जितनी शक्ति है ,हमने अच्छा ही किया ।
?*मेरे हस्ताक्षरों से ट्रांसफर होने वाले अध्यापक आज मुरादाबाद , प्रयागराज, कानपुर, बनारस आदि अनेक नगरों में* अध्यापन-कार्य कर रहे हैं । ?मुझे आशा है कि हमारे विद्यालय की सुखद यादें उनकी स्मृतियों के किसी कोने में सुरक्षित अवश्य होंगी । उनका ट्रांसफर जिस सुगमता से मैंने अपने हस्ताक्षरों के साथ किया ,वह मेरे जीवन के संतोष के सुनहरे क्षण हैं। यह पिताजी के निःस्वार्थ पद-चिन्हों का अनुसरण मात्र है ।
प्रधानाचार्य पद पर जब श्री प्रदीप पाठक का चयन हुआ और नाम मेरे सामने आया ,तब मैंने हमेशा की तरह तत्काल उनकी ज्वाइनिंग की दिशा में कार्य करते हुए नियुक्ति पत्र उन्हें भेज दिया । कार्यवाहक प्रधानाचार्य श्री बद्री प्रसाद गुप्ता ने मुझसे कहा कि अगर 30 जून तक यह ज्वाइनिंग रुक जाए तो अच्छा रहेगा । वह 30 जून को रिटायर होने वाले थे । उनकी इच्छा अपने आप में सही थी । किंतु मैंने कहा “अगर विद्यालय के हित में कोई कारण हो तो आप मुझे बताइए ? मैं ज्वाइनिंग रोक दूंगा । लेकिन केवल इस कारण कि कुछ महीने के बाद आप रिटायर हो रहे हैं ,मैं किसी अभ्यर्थी को ज्वाइनिंग से लटकाए हुए नहीं रख सकता । ” बद्री प्रसाद जी कोई अन्य विद्यालय-हित का कारण बता पाने में असमर्थ थे । मैंने पाठक जी की ज्वाइनिंग करा दी। ज्वाइनिंग का पेंच यह है कि एक-आध महीने बड़ी आसानी से प्रबंधक इस कार्य को टाल सकते हैं । विभाग के साथ तालमेल करके यह अवधि कई महीनों तक बढ़ाई जा सकती है । लेकिन यह अनुचित, अमानवीय और अनैतिक कार्य है । मैं इसके पक्ष में कभी नहीं रहा ।
हस्ताक्षर का अर्थ रबड़ की मोहर नहीं
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प्रबंधक को कुछ ही हस्ताक्षर करने होते हैं, लेकिन वहाँ उसे अपने विवेक के अधिकार का प्रयोग भी करना होता है । यह कोई रबड़ की मोहर नहीं है, जो लग गई । रसायन विज्ञान (केमिस्ट्री) के प्रवक्ता बनकर श्री मनीष श्रीवास्तव आए थे । ज्वाइनिंग के कुछ ही समय बाद वह मेरे पास एक आवेदन-पत्र लेकर उपस्थित हुए ,जिस पर यह लिखा था कि वह अपनी पीएच.डी. पूरी करना चाहते हैं तथा तब तक के लिए इस कारण छुट्टी प्रदान कर दी जाए तो बड़ी कृपा होगी । प्रधानाचार्य श्री पाठक जी ने आवेदन पत्र को अग्रसरित किया हुआ था । मैंने मनीष श्रीवास्तव जी से कहा ” यह तो सही है कि आपको पीएच.डी. पूरी करने के लिए छुट्टी चाहिए । लेकिन आपकी पीएच.डी. कितनी अवधि में पूरी होगी ,इसका हमें क्या पता ? आप निश्चित अवधि का उल्लेख करिए ताकि आपको उस तिथि तक के लिए छुट्टी प्रदान की जा सके । ”
मनीष श्रीवास्तव जी मेरी कार्यप्रणाली को पहचान चुके थे । उन्हें पता था कि प्रबंधक महोदय की आपत्ति रोड़े अटकाने के लिए अथवा किसी निहित स्वार्थ के लिए नहीं होती है ।
मनीष श्रीवास्तव जी ने निश्चित अवधि का उल्लेख किया। उनका काम उसी समय हो गया । फिर बाद में मेरी पाठक जी से जब बात हुई तब मैंने इस चूक की ओर उनका ध्यान आकृष्ट किया। वह कहने लगे “हमें मालूम है कि हमसे चूक हो सकती है लेकिन आपके पास जब कोई कागज जाएगा ,तब आप उस चूक को पकड़ लेंगे और कोई गलती नहीं हो पाएगी “। मेरे पास इस पर मुस्कुराने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं था ।
राग-द्वेष और लोभ से रहित संचालन जरूरी
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वर्ष 2006 से न जाने कितने उतार-चढ़ाव विद्यालय के आंतरिक क्रियाकलापों में आते रहे हैं । मेरी नीति सबको साथ लेकर चलने की रहती है । कई बार अध्यापकों में गुटबाजी हो जाती है । मेरे पास शिकायतें भी आती हैं । कई बार लिखित रूप से एक दूसरे के विरुद्ध आरोप-प्रत्यारोप मेरे सम्मुख आते हैं । मेरी कोशिश विवाद को शांत करने की रहती है । मैं जानता हूं कि सब में कुछ न कुछ सद्गुण होते हैं । मैं एक पक्ष के सद्गुणों की प्रशंसा दूसरे पक्ष के सामने करता हूं । मैं दूसरे पक्ष की विशेषता को भी अन्य को बताने से नहीं चूकता । इससे उन में समन्वय स्थापित होने लगता है और विवाद बढ़ने से बच जाता है । कई बार मुझे इसी पद्धति से विद्यालय सुचारू रूप से चलाने में सफलता मिली है । मेरा मानना है कि किसी की क्षणिक उत्तेजना अगर काबू में कर ली जाए ,तो आगे का समय निरापद रूप से कट जाता है । जब अध्यापक एक साथ बैठेंगे ,तो कई बार उन्हें खटपट हो जाती है । जब मामला मेरे पास आता है तो मैं उसे सुलझाने का प्रयास करता हूं क्योंकि मैं जानता हूं कि आंतरिक विवाद किसी भी संस्था का सबसे बड़ा शत्रु होता है । यह भी सत्य है कि अंततः सभी को एक जगह तथा एक साथ मिलकर ही कार्य करना होगा ।
सौभाग्य से पिताजी का आशीर्वाद कहिए या मेरा भाग्य , मैं सरलता से विद्यालय का संचालन कर पा रहा हूं । मुझे किसी अध्यापक आदि से न कोई राग है और न द्वेष है । मुझे कोई लोभ नहीं है । मेरी सब से आत्मीयता है । वस्तुतः “हम सब एक परिवार” हैं ।
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लेखक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451