सहर न हो
वो ख्वाब में जो आएं किसी को खबर न हो
इक रात वस्ल के मिले जिसकी सहर न हो
दुनिया में एक चेहरा ही भाता है क्यों हमें
मिलने की हम दुआ करें वो बेअसर न हो
होता है साथ अपनों का, रहता है हौसला
लम्बा हो चाहे जितना ये तन्हा सफ़र न हो
तन्हा है ज़िंदगी मेरी तन्हा सी है डगर
कैसे कटेगी ज़िदगी गर हम सफर न हो
इक आशियाना ऐसा जहाँ साथ सब रहें
दीवार बीच हो खड़ी कोई भी घर न हो
तुम साथ दो हमारा तो मंजिल को पा लें हम
मुमकिन भटक ही जाएं अगर राहबर न हो
हम लौट आए दर से ये बेशक गुनाह है
जाना नहीं वहाँ भी जहाँ पर कदर न हो
हैरान क्यों हुए हो हमारी अदाओं पर
‘सागर’ है वो भी क्या कोई जिसमें लहर न हो