-सहर्ष सूखी पडी धरा
सहर्ष सूखी पडी धरा ,हैं बादल अब आओ तो।
किसान तेरी राह देख रहा, अब बादल बरसाओं तो।।
घनी गहरी कडी धूप जन जगत सब सहमें हूए।
देखा दिखता जग जहाँ, तप्त धरा कंकाल लिए।।
निकला निकलना हैं मुश्किल, इस मतवाली गर्मी में।
वैभव विधुत जिनके घर जहाँ, वहाँ छवि चल जाने में।।
किसान कंकाल बैचारा कै करे, दरिंदो से दबा हुआ।
नभ निर्झर कर दें कृषको को, दरंदो से ना पुआ।।
तेरी आशा तन – मन मंडे हुये बुंदें अब बरसाओं तो।
सहर्ष सुखी पडी धरा…………….. 1
अकाल कृषक ज्यादा झरें,होती कर्म साथे काया निलाम।
विवश बैचारा वैभव बिना, तप्त धरा वर्षा नभ विराम।।
विकल विध्वंश बिन वर्षा, काल पनप रहा सब ओर।
बादल बूंदो को बदन गिरा दें, ठंडक सी मिलें विभौर।।
मोर मुकुट सोहे तेरी तमन्ना से, आहट स्वरो में लगाए।
घन घट- घट कर दें,जल का वैभव अंकुर भी शर्माए।।
देखें तेरी मोहनी अदाएं, बूंदों में जर्रा शरमाओं तो।
सहर्ष सूखी पडी धरा…………….. 2
नव पलवित नया जीवन, जगत में तू ही लाने वाला।
झम-झमा सी झिलमिल कर, ठंडक सी मिट जायें सोला।।
काले घूंघरालें बादल मतवाले, वर्षा करदें धरा की ओर।
तप्त धरा तलासे जल की जन्नत, आया ऐसा दौर।।
सकल कामना सिद्ध कर दें सुषुम सरिता के पालक।
वर्षा सी झिलमिल कर बहा दें जल सरिता को हैं चालक।।
किसान की तप्ती आंखों कों बूंदों से ठण्डा कर जाओं तो।
सहर्ष सूखी पडी धरा……………. 3
रणजीत सिंह “रणदेव” चारण
मूण्डकोशियाँर, राजसमन्द
7300174927