सहमी सी है आज कलम….
सहमी सी है आज कलम
शब्द उदास हैं खोए-खोए
अथाह गमों का सागर है
आखिर कोई कितना रोए !
मानव ही जब मानव की
पीड़ा समझ न पाता है
शब्द अगर मिल भी जाएँ
अर्थ कहीं गुम जाता है
भारी बोझ गमों का इतना
मन है नाजुक, कैसे ढोए !
पल सुख के बस दो चार
दुखों का है हर सूं अंबार
मरुभूमि से इस जीवन में
दहकते शोले और अंगार
बंजर भाग्य-जमीं पे कोई
बीज आस के कैसे बोए !
जग प्रपंच ये घोर छलावा
समझ यही बस आता है
सत्य निकट आते- आते
बीच में कहीं गुम जाता है
प्रश्न अनुत्तरित खड़े सामने
कहो तो कोई कैसे सोए !
अदम्य प्यास है नयनों में
जल- पात्र मगर खाली है
नजरें धुंधली, राह अँधेरी
रात भी अमा सी काली है
बिखरे मन के मनके सारे
कौन पास जो उन्हें पिरोए !
अथाह गमों का सागर है
आखिर कोई कितना रोए !
— -© डॉ. सीमा अग्रवाल —
मुरादाबाद ( उ.प्र. )
“मनके मेरे मन के” से