सहमा- सा माहौल
पेशानी पर बल हैं सबके,
सहमा-सा माहौल,
तोड़ रही है दम मानवता,
उड़ता रोज़ मखौल।
बस बिधिना से आस लगाए
बैठा एक गरीब।
दो गज धरती मरने पर भी
उसको नहीं नसीब।
देश व्यवस्था देख अधमरी,
खून रहा है खौल।
मरघट जैसे शहर हो गए,
तन्हाई में भीड़।
अपनों को खोने के गम में,
सिसक रहे हैं नीड़।
राजनीति से आग्रह जन का,
पूरा कर दो क़ौल।
हृदय हीन संवेदन से हैं,
लगता सूखा नेह।
अपनेपन पर प्रश्न चिह्न है,
करुणा पर संदेह।
नहीं जमाता कोई आकर,
अब प्यारी सी धौल।
डाॅ बिपिन पाण्डेय