‘सहज’ के दोहे -खामोशी
खामोशी पसरी रही,लोग रहे भयभीत।
दूर-दूर तक मौन थे,छन्द-ग़ज़ल औ गीत।
हम जब तक खामोश थे,खूब चल गई पोल।
ठान लिया अब बोलना,होगा डब्बा गोल।
खामोशी से क्या मिला,समझे गए गँवार।
ख़ुदगर्ज़ों का काफिला,फूला-फला अपार।
कुछ खामोशी में जिएं,कुछ के बाजें ढोल।
‘सहज’ नहीं आसान यह,कह-सुन गाँठें खोल ।
@ डा०रघुनाथ मिश्र ‘सहज’
अधिवक्ता /साहित्यकार
सर्वाधिकार सुरक्षित