सहकारी युग का छठा वर्ष 1964-65:एक अध्ययन
सहकारी युग हिंदी साप्ताहिक ,रामपुर (उत्तर प्रदेश) का छठा वर्ष 1964 – 65 : एक अध्ययन
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समीक्षक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451
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27 मई 1964 तक नेहरू के बिना भारत की कल्पना नहीं की जा सकती थी। नेहरू के अभाव में भारतीय राष्ट्रीय जीवन में जो रिक्तता उत्पन्न हुई ,वह वर्षों इस देश को बहुत गहरे खलती रही । भारतीय मन मस्तिष्क में एक पीड़ा बनकर पलती रही। नेहरू नहीं रहे ,नेहरू की याद बराबर रही।
बीस पृष्ठीय स्वतंत्रता दिवस विशेषांक 1964 में सहकारी युग ने संपादकीय के अतिरिक्त मुख-पृष्ठ पर अलग से नेहरू की दिवंगत आत्मा को स्वर्ग में आश्वस्त करते हुए समग्र राष्ट्र की ओर से आश्वासन दिया कि यद्यपि आज तुम नहीं हो लेकिन तुम्हारे तिरंगे की आन बान शान कायम रखने के लिए हम दृढ़ प्रतिज्ञ हैं। अत्यंत काव्यमय भाषा शैली में पत्र ने मुख पृष्ठ पर फिर लिखा “हम भारतवासी स्वतंत्रता दिवस मनाएँ/ नेहरू को याद रखते हुए नेहरू के आदर्शों को पूर्ण सम्मान देते हुए /अन्यथा यह मानवता रोएगी /और रो उठेगी नेहरू की आत्मा /तब भला हमारे पास क्या जवाब होगा/ हम किससे कहेंगे कि भारत नेहरू का बेटा है /हम भारतवासी हैं /यदि नेहरू के अनुयाई हैं /मानवता के अनुयाई हैं /तो निश्चय करें कि अमन को जिंदा रखने के लिए जिंदा रहेंगे /झोपड़ियों की बिलखती हुई मानवता को गले लगाएंगे/ धर्म के नाम पर बहने वाली मदांधता को बढ़ने नहीं देंगे /समाजवादी समाज अथवा न्याय के समाज की स्थापना करेंगे।”
इसी अंक के प्रष्ठ 12 पर संभवतः महेंद्र गुप्त की लेखनी से निःसृत एक गद्यात्मकता से ओतप्रोत काव्य आधे प्रष्ठ की राष्ट्रवादी सांस्कृतिक कविता “मेरे देश की मिट्टी तेरी जय हो “ध्यान आकृष्ट करती है । संपादकीय की कामना है कि “प्रधानमंत्री श्री शास्त्री ,गृह मंत्री श्री नंदा और कांग्रेस अध्यक्ष श्री कामराज की देश निर्माण की योजनाएं सफल हों।”
9 अक्टूबर 1964 के संपादकीय में नवंबर के महीने में नगरपालिका के होने वाले चुनावों के विषय में पत्र ने लिखा कि “इस चुनाव में जनता का कर्तव्य है कि वह भावनाओं के वश न होकर जातिवाद या नाते रिश्ते के बजाय व्यक्ति की योग्यता को समझ कर मतदान करें । यह कार्य राजनीतिक पार्टियों के द्वारा नहीं हो सकता क्योंकि उनके सामने उनके स्वार्थ हैं तथा उन पार्टी के नेताओं के सामने अपने व्यक्तिगत स्वप्न हैं।”
उपरोक्त क्रम में 17 अक्टूबर 1964 को पुनः संपादकीय टिप्पणी में दर्ज है “सहकारी युग के मत की कुछ लोग आलोचना करते हैं। कहते हैं इस अखबार का कोई ठौर ठिकाना नहीं ,कोई इत्मीनान नहीं । यह किस पार्टी के साथ है ,यह पता नहीं लगता। जिस व्यक्ति की प्रशंसा करता है ,उसी की आलोचना करने में भी संकोच नहीं करता आदि – आदि । वास्तव में यह हमारी आलोचना नहीं ,प्रशंसा है और हम स्वयं को उसी समय तक जीवित समझेंगे जब तक उपरोक्त टिप्पणियों का पुरस्कार मिलता रहेगा । नगरपालिका के चुनाव में इसी प्रकार की बात दोहराते हुए हम यह कहना चाहते हैं कि आज जितने दल इस चुनाव में भाग ले रहे हैं वह जनतंत्र को पुष्पित पल्लवित देखने के बजाय अपने दल की प्रसिद्धि और शक्ति में अधिक विश्वास रखते हैं यदि ऐसा न होता तो शायद यह पार्टियां अपना अपना मुर्गा लड़ाने के बजाय मिलकर योग्य उम्मीदवारों का चयन करतीं ना कि जातिवाद और बिरादरी के आधार पर कदम उठातीं। आज जो उम्मीदवार हमारे सामने हैं उनमें से अधिकांश इन्हीं घृणित आधारों पर चुनाव लड़ने का इरादा रखते हैं कि जो जनतंत्र के लिए भयानक शत्रु है।” सहकारी युग ने जनता से अनुरोध किया कि नगर पालिका के चुनाव में जनता पार्टियों के आदेशों ,सिद्धांतों ,घोषणाओं के स्थान पर व्यक्तित्व की परख करने के बाद ही मतदान करे ।”
जाति और धर्म की संकीर्णताओं से ऊपर उठकर सर्वश्रेष्ठ सेवाभावी व्यक्तियों को नगर पालिका के लिए चुनने का जनता से एक बार फिर अनुरोध करते हुए सहकारी युग ने लिखा कि कृपया इन घटिया बुनियादों पर अपने जनप्रतिनिधियों को मत चुनिए “क्योंकि म्यनिसपिल बोर्ड का ताल्लुक शहर की सफाई, तालीम ,रोशनी जैसी चीजों से है जो ना हिंदू है ना मुसलमान ना वैश्य ना कायस्थ बल्कि सेवा इन का धर्म है।” (संपादकीय 24 अक्टूबर 1964 )
धर्म के नाम राजनीति करने की आलोचना करते हुए सहकारी युग ने 31 अक्टूबर 1964 को संपादकीय टिप्पणी में धर्म के दुरुपयोग पर गहरी चिंता व्यक्त की है और कहा है कि धर्म स्थानों का वाह्य रूप भले आकर्षक हो पर उनके अंतर में स्थापित कल्पित मूर्तियां स्वर्ण एवं रजत से मंडित होकर पुष्प पराग में मस्त अपने एजेंट्स पुजारियों के द्वारा न मालूम कितने निर्धन किंतु भक्त जनों की जेबों की ओर ललचाए नजरों से झांका करती हैं । यह कितनी विडंबना है कि इन्हीं धर्म स्थानों के द्वार पर साक्षात परमेश्वर जिसके लिए किसी कल्पना लोक की आवश्यकता नहीं कहीं कर भग्न, कहीं पग भग्न ,कहीं नयन हीन तो कहीं विकृत अंग होकर एक हाथ पसारे एक हाथ में सहारे के लिए ,अधिकार रक्षा के निमित्त नहीं दुर्बल-सा दंड लिए हैं । किंतु हाय रे नर पिशाच धर्मांध मूर्ख !इस लोक की उपेक्षा कर परलोक की चिंता में निमग्न मानव ! तू इसकी उपेक्षा करने में किंचित भी शर्म का अनुभव करने के स्थान पर गर्व से मस्तक ऊंचा कर लेता है ।”
14 नवंबर 1964 को नेहरू की याद में सहकारी युग संपादकीय ने उन्हें स्मरण करते हुए लिखा कि “हृदय और मस्तिष्क की की दुनिया में नेहरू का सिक्का शताब्दियों तक चलता रहेगा । श्री नेहरू का व्यक्तित्व हृदय और मस्तिष्क में ही निहित था।”
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के निधन पर सहकारी युग के 24 दिसंबर 1964 के अंक के प्रथम पृष्ठ ने अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित की। पत्र के अनुसार राष्ट्रकवि को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए नगर के साहित्यकार ज्ञान मंदिर में एकत्रित हुए जहां रजा डिग्री कॉलेज के प्रधानाचार्य डॉ अवध बिहारी लाल कपूर की अध्यक्षता में इसी विद्यालय के हिंदी विभाग के प्रोफेसर शिवा दत्त द्विवेदी और श्री लखन लाल तथा सुंदर लाल इंटर कॉलेज के श्री चतुर्वेदी तथा श्री कल्याण कुमार जैन शशि ने श्रद्धा सुमन अर्पित किए । इसी अंक में कल्याण कुमार जैन शशि की भाव प्रवण काव्यांजलि तथा महेश राही की काव्यमय भावांजलि प्रकाशित हुई है । यह सब बातें साहित्यिक दुर्घटनाओं के प्रति सहकारी युग के शोक तथा व्यापक अभिव्यक्ति की तत्परता का प्रमाण देती हैं ।
22 पृष्ठीय गणतंत्र दिवस विशेषांक 1965 में सहकारी युग ने संपादकीय में कहा “आज हमारे शत्रु हैं भूख गरीबी अशिक्षा और असुरक्षा जिनके रहते ना हमारा जीवन स्तर उठाया जा सकता है और ना ही हम एक समृद्ध राष्ट्र के नागरिक माने जा सकते हैं । आइए दृढ़ संकल्प लें कि इन चारों शत्रुओं के विरुद्ध संघर्ष आरंभ करेंगे। सत्ताधारी दल के लोग प्रदेशों का दौरा करते हैं तो जनहित की बात करने के बजाए दल की बातें करते हैं । कटुता को बढ़ाने वाला रवैया अख्तियार करते हैं । यह लोग जब देश की राजधानी में पधारते हैं तो केंद्रीय स्तर के नेताओं से दलबंदी की बातचीत करते हैं और इस दलबंदी की बातचीत पर खर्च होने वाली रकम भारत की जनता को अदा करनी पड़ती है । आवश्यकता यह है कि मतदाता यानी वे लोग जो सत्ता का अधिकार देते हैं इन्हें समय-समय पर इतना ज्यादा झिंझोड़ने की आदत डाल लें कि यह लोग कर्तव्य पथ से हटने में भयभीत होने लगें।”
लाउडस्पीकर के बेरोकटोक प्रयोग के विरुद्ध सहकारी युग में अनेक बार आवाज उठाई और कीर्तन ,धर्म – प्रचार अथवा व्यवसाय आदि के नाम पर इस ध्वनि प्रदूषण और अभद्रता का कड़ा विरोध किया। उसने इन्हें लाउडस्पीकर के बजाय “बेहूदगी” की संज्ञा दी । (5 सितंबर 1964) तथा इनके खुले प्रयोग के खिलाफ बार-बार पत्र में प्रशासन का ध्यान आकृष्ट किया (19 मार्च 1965 )
रामपुर में गंदगी और तमाम तरह की नालियों सड़कों आदि पर उन्मुक्त विचरती सड़ाँध पर तीखा प्रहार करते हुए सहकारी युग ने स्पष्ट शब्दों में नगर वासियों के मौन को अभिव्यक्ति देते हुए लिखा “स्थानीय नगरपालिका नागरिकों को स्वच्छता की इस छोटी सी सुविधा से अनेकानेक वर्षों से वंचित रखती आ रही है। हम यह बात केंद्र और राज्य सरकारों के वरिष्ठ अधिकारियों तक पहुंचाने के लिए विवश हैं ।हम समझते हैं कि स्वास्थ्य व्यवस्था के प्रश्न पर रामपुर पालिका के अधिकारियों और जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों ने हमेशा ही मजाक किया है और अगर इस व्यवहार के विरुद्ध जबरदस्त लड़ाई न छेड़ी गई तो निस्संदेह यह नगर जो अभी किसी नर्क के भयावह चित्र की रूपरेखा ही है कल उस चित्र का जीता जागता स्वरूप बन जाएगा ।”(संपादकीय 10 अप्रैल 1965 )
रामपुर प्रदर्शनी कवि सम्मेलन की विस्तृत रिपोर्ट मुख पृष्ठ पर देकर सहकारी युग ने अपनी साहित्य प्रियता का परिचय दिया । 24 अप्रैल 1965 को उसने लिखा “रामपुर प्रदर्शनी के तत्वावधान में आयोजित कवि सम्मेलन ने इस वर्ष सफलता की उस सीमा का स्पर्श किया जहां तक पहुंच सकने में विगत कई वर्षों से हम असफल रहे हैं ”
यहां “हम” शब्द का प्रयोग रामपुर में कवि और कविता से संपादक की गहरी आत्मीयता को स्पष्ट रूप से सहज ही प्रमाणिकता प्रदान कर देता है ।कवि सम्मेलन पर टिप्पणी के कुछ अंश देखिए “इस कवि सम्मेलन में उस समय समस्त श्रोतागण राष्ट्र नायक श्री नेहरू के स्मरण में तल्लीन हो गए जब युवक कवि भारत भूषण ने अपनी कविता के माध्यम से सहस्त्रोंरों हृदयों के तार हिला दिए। स्थानीय कवियों में हम उल्लेख करेंगे केवल महेश राही का जिसने समाजवादी कल्पना को अपनी कुछ थोड़ी सी पंक्तियों में उतारने का अच्छा प्रयास किया। शायद यह समाचार पूर्ण न हो यदि संयोजक श्री भगवान स्वरूप सक्सेना के सफल संचालन का वर्णन न किया जाए ।”
हमलावर पाकिस्तान निरंतर भारत को सैनिक चुनाती दे रहा था । इस परिप्रेक्ष्य में 21 मई 1965 का यह समाचार अत्यंत आकृष्ट करता है जिसका शीर्षक है “पाक आक्रमण की निंदा :रामपुर के मुसलमानों का कदम ” इसी माह की 19 तारीख को रामपुर के मुसलमानों के प्रतिनिधियों की एक सभा डिग्री कॉलेज के भूतपूर्व अध्यापक प्रोफ़ेसर मोहम्मद शफीक की अध्यक्षता में हुई । सभा उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सदस्य श्री अब्दुल हमीद खाँ के निवास स्थान पर आयोजित की गई जिसमें निम्नलिखित प्रस्ताव पारित हुआ ः”रामपुर के मुसलमानों की यह सभा पाकिस्तान द्वारा भारतीय सीमाओं पर किए गए वहशियाना आक्रमणों की निंदा करती है। हम रामपुर के मुसलमान पाकिस्तान के इस आक्रमण का कड़ा विरोध करते हैं और भारत सरकार को आश्वासन देते हैं कि मातृभूमि की इज्जत और रक्षा के लिए खून की आखिरी बूंद तक देने में संकोच नहीं करेंगे ।”
ज्ञान मंदिर की गतिविधियों को सहकारी युग में सदा प्रमुख स्थान मिला। 21 मई 1965 के अंक में इस हिंदी की एक मात्र संस्था ज्ञान मंदिर रामपुर में 27 मई 1965 को सायंकाल 8:00 बजे नेहरू जी की स्मृति में काव्य पाठ की सूचना मुखपृष्ठ पर प्रमुखता से छापी ।
28 मई 1965 को सहकारी युग ने नेहरू स्मृतियों से सराबोर भारत में पाकिस्तानी आक्रमण से उत्पन्न संकट पर लंबा वेदना पूर्ण संपादकीय लिखा और कहा कि “आज सारे भारत को विशेषकर सबसे ज्यादा अपने फर्ज को पहचानना है ।आज हमें याद करना चाहिए इंसानियत के पैगंबर स्वर्गीय पंडित जवाहरलाल नेहरू को जो हर इंसान को इंसानियत की नजर से देखता था किसी मजहब के चश्मे से नहीं ।जिसने इंसानियत को पनपते हुए देखना चाहा और बिस्मार करने वालों को सही रास्ते पर लाने की कोशिश की ।”
एक राष्ट्र के जीवन में बहुधा ऐसे धर्म संकट खड़े होते हैं जहां धर्म और राष्ट्र के बीच विवाद होने लगता है। सहकारी युग ने धर्म पर राष्ट्र को वरीयता देना सिखाया और राष्ट्र धर्म को ही असली धर्म बताया। महत्वपूर्ण बात यह है कि ऐसा करते समय पत्र ने कतई सांप्रदायिकता का स्पर्श नहीं किया । इतना ही नहीं अपितु अत्यंत आत्मीयता और मधुरता से भ्रातृत्व पूर्ण रीति से अपनी बात पाठकों के सामने रखी । प्रेरणात्मक समाचारों को प्रमुखता दी । श्री अब्दुल हमीद खां के निवास पर रामपुर के राष्ट्रवादी समाज की सभा का ऊपर वर्णित समाचार इसी बात का प्रमाण है ।
कच्छ के रन में पाकिस्तान की फौजों के प्रवेश को सहकारी युग ने पाकिस्तान के नापाक इरादों की संज्ञा दी और बाद में रन कच्छ के समझौते को भी पाकिस्तान की नेक नियत की नहीं बल्कि ब्रिटेन अमेरिका और रूस का दबाव ही मुख्य रूप से माना है । पत्र का स्पष्ट विचार था कि भारत को पूरी सतर्कता व जागरूकता तथा अपनी नीति को सुधारने व संवारने की आवश्यकता है ताकि” भविष्य में फिर हमारे विशाल देश को एक छोटे से पड़ोसी देश के हाथों अपमान का घूंट न पीना पड़े।” (संपादकीय 3 जुलाई 1965)
कहने की आवश्यकता नहीं कि पत्र वर्षभर राष्ट्रीयता की अलख जगाता रहा और जनता को प्रगाढ़ देशभक्ति और राष्ट्रप्रेम की ओर प्रेरित करने के लिए अपनी शक्ति भर पूर्ण निष्ठा से प्रयत्न करता रहा । रामपुर जैसे छोटे से नगर में बैठकर इतनी तीखी, सच्ची और कड़वी बातें कहना सिर्फ सहकारी युग के बूते की ही बात थी ,जिसे अपनी धर्मनिरपेक्ष मानवतावादी और निर्गुट तथा गैर राजनीतिक अर्थात निर्दलीय निष्ठा के बल पर यह पत्र बखूबी निर्वाह कर सका। समय से जुड़े प्रश्नों पर पत्र की लेखनी सदा बेबाक तेज तर्रार और बेधड़क चली और युग – सत्य को पाठकों के मन मस्तिष्क को झकझोरने के लिए प्रष्ठों पर आकार ग्रहण करती गई । जो लेखनी सच लिखने से झिझकती है या झूठ का आश्रय लेती है या दब कर चलती है या झुक जाती है या मोह माया ममता के वशीभूत बिक भी जाती है, वह पत्रकारिता के आसन से गिर जाती है। कलम के सर्वोच्च सम्मान को सहकारी युग ने जीवित रखने में ही अपने जीवन की पूर्णता समझी।
इस वर्ष के साहित्यिक वैचारिक रचनाकार अनेक हैं :-रामावतार कश्यप पंकज ,ई.एच. रैगनगर (पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय) राम रूप गुप्त ,वाचस्पति अशेष (बदायूं )देवकीनंदन पांडेय, वीरेंद्र शलभ (हामिद स्कूल रामपुर )महेश राही, रमेश शेखर (बदायूं), सुकुमार बंसल (जिला सूचना अधिकारी बिजनौर), रूप किशोर मिश्र ,कल्याण कुमार जैन शशि, डॉ देवर्षि सनाढ्य (गोरखपुर विश्वविद्यालय ),गिरिराज शरण अग्रवाल (संभल), अवध बिहारी लाल कपूर ,शिवा दत्त द्विवेदी ,हरि प्रसाद पांडेय, शंकर गाजीपुरी ,नरहरि डालमिया, जेपी चतुर्वेदी भगवान स्वरूप सक्सेना (जिला सूचना अधिकारी रामपुर ),हृदय नारायण अग्रवाल ,रामस्वरूप आर्य (बिजनौर), काशी प्रसाद पुजारी, परेश (बदायूं) धर्मेंद्र कुमार कंचन ,मुन्नू लाल शर्मा रामपुरी और कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर।
अनेकानेक कविताओं ,कहानियों, लेखों से यह पत्र वर्ष भर जगमगाता रहा। स्थानीय महत्व की घटनाएं ,साहित्यिक आयोजन और साहित्यिकता को बढ़ाने वाली गतिविधियों को उजागर करने में पत्र ने विशेष रूचि ली । निष्पक्ष और निर्भीक राजनीतिक दृष्टि सहकारी युग का प्राण है। किंतु राष्ट्रहित का पक्ष सदा इस ने स्पष्ट रूप से लिया ।व्यक्तिगत आलोचना से पत्र ने परहेज किया मगर वैचारिक बहस से कभी पीछे नहीं हटा और सच कहते समय यह नहीं देखा कि इस सच की कीमत कितनी बड़ी चुकानी पड़ेगी।।