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26 Nov 2024 · 1 min read

सवेरा न हुआ

सवेरा न हुआ

वो तो मेरा ही था, पर मेरा न हुआ,
कैसी रात थी, जिसका सवेरा न हुआ।

कोई शिकवा-शिकायत होती, हमें कहते,
एक साथ मिलकर उसे सुलझा ही लेते।

कोई ग़म या खुशी होती, मुझसे बाँट लेते,
इससे पहले तो तुमने कभी कुछ भी न कहा।

ये कैसी जिद है तुम्हारी, थोड़ा सब्र रखते,
साथ मिलकर सारी ज़िम्मेदारियाँ बाँट लेते।

चार दिवारों को घर तो बना दिया होता,
परिंदे भी अपना घर सहेज कर रखते हैं।

दिल में ये किस तरह की आग है तुम्हारे
ये कैसी धुन है ,अपना ही घर जला बैठे?

कभी इस दिल से रौशन हमारा घर था,
आज इस अंधेरे में उम्मीद की किरण नहीं,

जाने वाले कभी मुड़कर कहाँ देखते हैं,
जरा ठहर,कर मुझे भी साथ तो ले जाते।
प्रो. स्मिता शंकर
सहायक प्राध्यापक ,हिन्दी विभाग
बेंगलुरु-560045

Language: Hindi
31 Views

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