सवाल सिर्फ आँखों में बचे थे, जुबान तो खामोश हो चली थी, साँसों में बेबसी का संगीत था, धड़कने बर्फ़ सी जमीं थी।
सवाल सिर्फ आँखों में बचे थे, जुबान तो खामोश हो चली थी,
साँसों में बेबसी का संगीत था, धड़कने बर्फ़ सी जमी थी।
घरौंदे में रेत की बुनियाद थी, बस एक झटके की कमी थी,
क़दमों के निशान भी वहाँ पड़े, जहां की धरती पे लहरों की नमी थी।
चाँद का ज़ख्म ढकते रह गयी रात, जो अब तक वो ना ढली थी,
उधर सुबह के इंतज़ार में, वो साँसें सुदूर क्षितिज़ पर थमीं थी।
विश्वास की डोर खींचे, टूटती उम्मीदों को समेटे वो तन्हा खड़ी थी,
और घातों की निरंतरता कुछ यूँ हुई, की रूह असहाय बन सहमी थी।
चिट्ठियां अनछुई रह गयीं, जो दराज के कोनों में बेलिबास पड़ीं थी,
और दस्तकें उन दरवाज़ों को नसीब हुए, जिनकी चाभियाँ सदियों से गुमीं थी।
ठहरने को बस सराय रह गए, घर की छत तो तूफानों में का की उजड़ी थी,
जिस दीप ने रोशन की थी दहलीजें, आज वो बेसहारा सी सड़क पर धूल में सनी थी।
भावनाएं एक बार फिर उबर आयीं, जो सागर की तलहटी पर पहुंच मृत पड़ीं थी,
शायद दुआओं में असर उन फूलों का था, जो कभी मंदिर की मूरत पर पुष्पांजलि बन बिखरीं थी।