“सलाह” ग़ज़ल
-“सलाह”
निश्छल नहीं हैं लोग, भुलाया न कीजिए,
हर बात हर किसी को, बताया न कीजिए।
रूमानियत न होश, परिन्दों से छीन ले,
यूँ चाँदनी मेँ, आ के नहाया न कीजिए।
ज़ालिम है जवानी, नहीं है ज़ोर किसी का,
छत पे यूँ ज़ुल्फ़ खोल के, जाया न कीजिए।
माहौल भी तब्दील हो चुका है शहर का,
यूँ रब्त हर किसी से, निभाया न कीजिए।
अहबाब भी बदल चुके हैं, साथ वक़्त के,
जो बीत है चुकी, वो सुनाया न कीजिए।
नज़रों से बुरी, बच के अब जीना मुहाल है,
घर आप मिरे, रात को, आया न कीजिए।
बहुरूपियों का जाल बिछ रहा है हर सिमत,
हर इक पे अब तरस भी यूँ, खाया न कीजिए।
“आशा” ही नहीं, आपसे है, इल्तिजा मेरी,
इतना भी मगर हमको, रुलाया न कीजिए..!
अहबाब # दोस्त, friends
सिमत # तरफ़, directions
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