— सर्द वाली रात —
एक बार वक्त मिला
कहीं घूम के आ जाए
चल दिए घर से
बेख़ौफ़, बिना परवाह किये
रास्ते में बढे जब कदम
लगने लगा जैसे निकलेगा दम
चलते चलते रात हो गयी
न जाने कब रात से बात हो गयी
खोजने को मन हुआ
किसी से ले लूं आसरा
पर झिझक के मारे
मन कुछ कह न सका वावरा
अनजान सी जगह
अनजान सी बस्ती से पड़ा वास्ता
सर्द हवा का था जोर
बस हवा का आ रहा था शोर
न हाथ में कम्बल , न ही कोई शाल
पता नही कैसे गुजरेगी यह रात
यह सोच के दिल हुआ बोर
अनजान सी सुनसान जगह
किसी के साथ भी मेल न हुआ
न होटल, न कोई सराय
दिल करता रहा बस हाय हाय
हाथों को लपेट कर
अपने बाजुओं के भीतर
ठिठुरे कदम से चल दिए
इस रात की सर्द से बचने को
दूर से नजर आया
एक लौ का जलता सा चिराग
मन को जैसे शान्ति मिली आपार
पहुचं कर देखा वो था शमशान
मन में डर भर् गया
सोचा अब जाए तो जायें किधर
लेकर इश्वर का नाम
उस चिता के पास बैठ गुजार दी रात
मन में आये प्रश्न हजार
इक में था जो सर्द की रात को
गुजारने का आसरा खोज रहा था
एक वो है ,जो सर्द की रात में
अग्नि में हो रहा भस्म है
वहीँ अंत हो गया घुमने फिरने का
वापिस आ गए जहाँ से चले थे
गए थे घुमने के लिए
लगा जैसे सारी जिन्दगी का
सार समझ के वापिस आ गए
अजीत कुमार तलवार
मेरठ