“सर्द रात”
बर्फ को ओढ कर बैठ गया है
बूढ़ा हिमालय
रात के ऊपर नींद का बोझ
झरोखे के उस तरफ
कोहरे की सफेद साड़ी लपेटे
अँगड़ाई ले रही है सुबह
ये कौन है जो झाँक रहा है
तह की हुई स्मृति से
किसके इंतजार के लम्हे
लम्बे होने लगे हैं
चाँद भी बेचैन
बादल की बाँहों में मुँह छुपा कर
इतराने को
निशा तो नशे में चूर
अपने बाँहें फैलाए बुला रही है
मैं जाना चाहता हूँ
उस मायाजाल में
महसूस करना है मुझे
उस मृगतृष्णा को
किसे पता उसमें खो जाने का
सुख , कैसा है !
पाँव फ़ैला कर बैठी है रात
धुआँ धुआँ सा है
नि:श्वास में
मुरझाई हुई चिट्ठी में अब
पड़े हैं कुछ सूखे शब्द
तुम यकीं करो या न करो
मेरे स्वप्न के भाग्य में वो ही एक
सर्द रात नहीं है
अब ऐसा लगता है
मुझसे ज्यादा, मेरी इच्छाओं को
इस रात की नीरवता
उपभोग कर रही है ।
***
पारमिता षड़गीं