सर्दी में मेरी सुबह खो गई
सर्दी में मेरी सुबह खो गई
सर्दी में मेरी सुबह खो गई, जाने किस खेत की मेंड़ पर थी
कोहरे में शायद कहीं छिपी, अरसे से मेरी मुलाकात न थी।
कैसे मानूं वह मेरे गांव में थी, जब मुझसे कोई बात न थी
कभी सुना वह धुंध में डूबी, मुश्किल उसकी पहचान रही।
कोई कहे वह कण-कण में थी,पर न जाने किस भेष में थी
किससे पूछूं कहां गई वो, छिपाए सबको आगोश में थी।
बदलू मधुशाले से लौटा, तो देखा सब उसकी खोज में थे
अकेले बदलू बस होश में था, बाकी सब मदहोश ही थे।
सर्दी से गांव-शहर सहमा था,न जाने वो किस गली मिले
घरैतिन भी थीं परेशान,घरवाले जिनके परदेस मे थे।
ढूंढ-ढूंढ कर हारा उसको, वो लेटी खेत-खलिहान में थी
अंगीठी से डरी भागी होगी, कहीं पसरी बियाबान में थी ।
सर्दी में सारा शहर था सोया, एक अकेला गांव जगा था
जब शहर मस्त मयखाने में था, गांव ज़हर के जोश में था।
जब आधी दुनिया आग तापती, थी ठंडी से जंग लड़ रही ,
तब सर्दी के सारे पचड़ो से दूर, मैं जा छिपा रजाई में था ।
पर्दे के अंदर झांक-झांक, पूछे कब बाहर निकलोगे ?
बिस्तर के बाहर बैठ डराए , बोले कब तक छिपे रहोगे?
जगा तो पाया कोहरा वृक्षों पर, ठंडी द्वार के बाहर लेटी थी
सर्दी में मेरी सुबह खो गई, जाने किस खेत की मेंड़ पर थी।
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—–राजेंद्र प्रसाद गुप्ता, मौलिक/स्वरचित।