सरे-बाज़ार मैं आराम की बोली लगाता हूँ
ग़ज़ल
बह्र-हज़ज मुसम्मन सालिम
सरे-बाज़ार में आराम की बोली लगाता हूँ।
तभी जाकर कहीं दो वक़्त की रोटी कमाता हूँ।।
अंधेरों से रहे महफूज़ घर मेरा इसी खातिर।
लहू से अपने घर के अब चराग़ों को जलाता हूँ ।।
चमन ये दिख रहा गुलज़ार तुमको तो समझ लीजै।
पसीना सींच कर सहरा में फूलों को खिलाता हूँ ।।
बँधी है फ़र्ज की पट्टी इन आंखों में तभी तो ही।
कि बनके बैल कोल्हू का मैं अब चक्कर लगाता हूँ।।
“अनीश” अब ये शिकायत है मेरे अपनो की मुझसे ही।
कि उनके साथ मैं क्यों वक़्त थोड़ा ही बिताता हूँ ।।
@nish shah