*सरस रामकथा*
सरस रामकथा
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रामकथा भारत का प्राण है । हजारों वर्षों से भगवान राम का व्यक्तित्व और चरित्र समस्त मानवता को मार्गदर्शन दे रहा है। इन्हीं प्रेरक प्रसंगों की छत्रछाया में हम सब ने जीवन के पाठ पढ़े हैं। रामकथा में स्वयं ही इतना सुंदर उतार-चढ़ाव है कि पाठक मुग्ध हो जाते हैं। फिर तुलसीदास जी की प्राणवान देखनी को तो जितना भी नमन किया जाए कम है। हनुमान प्रसाद पोद्दार जी की भक्ति भावना सब प्रकार से बारंबार नमन के योग्य है।
भगवान राम का जन्म अलौकिक है। मनु और शतरूपा को वरदान देकर भगवान दशरथ और कौशल्या के पुत्र के रूप में जन्मे, यह मनुष्यता का सौभाग्य रहा । कौशल्या और दशरथ भगवान के बाल-रूप की उपासना चाहते थे । उन्हें चतुर्भुज विश्वरूप के स्थान पर अपने ऑंगन में खेलते हुए बालक राम अधिक प्रिय थे । इसीलिए तुलसीदास जी ने भगवान के बाल स्वरूप की वंदना की है :-
मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवहु सो दसरथ अजिर बिहारी।।
दशरथ के ऑंगन में भगवान राम खेलते हुए नजर आऍं और कौशल्या उन्हें गोद में लेकर अतिशय प्रसन्नता का सुख प्राप्त करें, यही तो वरदान का मूल भाव था। सब प्रकार से अस्त्र-शस्त्रों में पारंगत होकर जब भगवान राम बड़े हुए तब विश्वामित्र उन्हें लक्ष्मण सहित अपने आश्रम में ले गए। ताकि यज्ञ की रक्षा हो सके।
उसके बाद सीता स्वयंवर में भी ऋषि विश्वामित्र के साथ राम और लक्ष्मण जनकपुरी गए । पुष्प-वाटिका में राम और सीता की मर्यादित भेंट रामचरितमानस का प्रमुख अंग है। शिवजी का धनुष टूटा और सीता जी ने भगवान राम के गले में वरमाला पहनाई। भगवान परशुराम क्रोधित हुए। लक्ष्मण की व्यंग्यात्मकता ने जहॉं उन्हें रुष्ट किया, वहीं भगवान राम की विनम्रता ने उनके हृदय को शीतलता प्रदान की । विवाह के उपरांत राम और सीता अयोध्या में आए । चारों तरफ हर्ष का वातावरण छा गया।
कुछ समय बीतने पर महाराजा दशरथ ने अपने सिर के बालों को सफेद होता हुआ देखा। उचित निर्णय लेते हुए उन्होंने भगवान राम के राज्याभिषेक का निर्णय लेकर विचार करना शुरू कर दिया । मुनिराज वशिष्ठ और सभासदों से परामर्श हुआ । सब की राय थी कि महाराज दशरथ का निर्णय सर्वथा उचित है।
राम राजा बन जाते, लेकिन भगवान को मनुष्य के रूप में अपनी लीला भी खेलनी थी। इसलिए मंथरा कुटिल बुद्धि के साथ परिदृश्य में प्रवेश करती है। वह रानी कैकेई के भीतर सगे और सौतेले पुत्र के भेद को उत्पन्न करने में सफल हो जाती है । जिस रानी के हृदय में विशुद्ध राम-प्रेम पलता था, अब वहॉं राम के प्रति ईर्ष्या और द्वेष विशाल चट्टान बनकर खड़ा हो गया । रानी ने दशरथ से दो वरदान मॉंगे; पहला भरत को राज्य और दूसरा राम को चौदह वर्षों का वनवास।
दशरथ राम के वियोग को सहन नहीं कर पाए ।उन्होंने प्राण त्याग दिए । उससे पहले ही राम पिता की आज्ञा मानते हुए वन को चले गये। साथ में सीता और लक्ष्मण भी गए। राम को सत्ता का मोह नहीं था। उन्होंने युगों-युगों तक के लिए एक ऐसा आदर्श स्थापित कर दिया, जिसकी उपमा कठिन है । लेकिन भरत ने मानो भगवान राम की त्यागमयता से होड़ करने की ठान रखी हो। जो राज्यपद उन्हें अपने पिता और माता के निर्णय के फलस्वरूप विधि सम्मत प्राप्त हुआ था, भरत ने उसे लेने से इनकार कर दिया। सब भारत की इस त्याग वृत्ति से अचंभित भी थे और प्रसन्न भी। ऐसा व्यक्ति युगों-युगों में कोई एक होता है। भरत वन में भगवान राम को अयोध्या वापस बुलाने के लिए गए, लेकिन राम नहीं लौटे। मजबूरी में भरत ने भगवान राम की चरण पादुकाऍं राज्यचिह्न के रूप में स्वीकार करते हुए उन्हें अयोध्या आकर राज्य सिंहासन पर आसीन कर दिया। अब भरत कुश की शैया पर सोते थे। मुनियों के समान वस्त्र पहनते थे। जीवन में विलासिता का कोई अंश नहीं था। सीधा-सादा भोजन और रहन-सहन बन गया था ।
राम चौदह वर्ष के लिए वन में रहे । यहीं मार्ग में उनकी भेंट केवट और निषादराज गुह से हुई। महर्षि अगस्त्य तथा मुनि भारद्वाज के आश्रम में भी भगवान राम ने जीवन के पाठ पढ़े।
पंचवटी में रहते हुए रावण की बहन शूर्पणखा से मुठभेड़ हुई। शूर्पणखा की कामवासना को अस्वीकार करते हुए जब उसे ठुकरा दिया, तब वह अपमानित महसूस करते हुए खर-दूषण को बुला लाई। युद्ध में खर-दूषण मारे गए। तब शूर्पणखा अपने भाई रावण के पास गई । रावण ने मारीच को सोने का मृग बनकर माया रचने के लिए कहा। राम और सीता दोनों ही इस माया के फेर में पड़ गए। फलस्वरूप रावण कपटपूर्वक सीता जी को चुरा कर लंका में ले गया । मार्ग में पक्षीराज जटायु ने अपना कर्तव्य जानते हुए रावण से युद्ध किया। वीरगति को प्राप्त हुए । लेकिन इतिहास में अमर हो गए।
उधर शबरी को “नवधा भक्ति” सिखाते हुए उनके द्वारा प्रदत्त फल भगवान राम ने अत्यंत माधुर्य के साथ ग्रहण किए। किष्किंधा में हनुमान जी और सुग्रीव जी ने जब भगवान राम के दर्शन किए, तब कथा ने एक नया मोड़ ले लिया। हनुमान जी भगवान राम के सबसे महान और श्रेष्ठ सेवक सिद्ध हुए।
बाली का वध करके जब भगवान राम ने सुग्रीव को राज्य पद वापस दिलाया और उसके बाद जब सुग्रीव लापरवाह हो गया, तब सुग्रीव को उसका कर्तव्य याद दिलाने में हनुमान जी की प्रमुख भूमिका रही । हनुमान जी ने ही समुद्र को पार करके लंका में अशोक-वाटिका पहुंचकर सीता जी को भगवान राम की अंगूठी प्रदान की। तत्पश्चात लंका में आग लगाकर वह सीता जी से उनके चूड़ामणि लेकर पुनः समुद्र तट पर वापस लौटे और भगवान राम को सीता जी का सब हाल बताया।
लंका में ही हनुमान जी की विभीषण से भेंट हुई। यह रावण के छोटे भाई थे लेकिन राम भक्त थे। सज्जन स्वभाव के धनी थे। विभीषण राम के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुए। राम रावण युद्ध में रावण और उसकी सेना की मायावी शक्तियों से विजय प्राप्त करने में भगवान राम को अंततोगत्वा सफलता मिली।
लेकिन मार्ग कंटकाकीर्ण था। समुद्र पर सेतु बनाया गया जो एक अविस्मरणीय कार्य सिद्ध हुआ। युद्ध में मेघनाथ से लड़ते हुए लक्ष्मण जी मूर्छित हो गए। तब हनुमान जी ने लंका से सुषेण वैद्य को बुलाकर औषधि देने की व्यवस्था की। रातों-रात संजीवनी बूटी का पहाड़ उखाड़ कर ले आए। लक्ष्मण जी के प्राण बच गए। रामकथा में हनुमान जी का यह ऋण कभी नहीं चुकाया जा सकता।
राम-रावण युद्ध में विभीषण ने यह बताया कि रावण की नाभि में अमृत है। तब राम ने इकत्तीस बाण छोड़े। दस से सिर कटे। बीस से हाथ और इकत्तीसवें बाण से रावण की नाभि का अमृत सूखा।
लंका जीतने के बाद भी भगवान राम को सोने की लंका से मोह नहीं था । उनके लिए जन्मभूमि अयोध्या ही सर्वोपरि थी । अयोध्या लौट कर भगवान राम ने राजसिंहासन पर बैठ कर रामराज्य की स्थापना की।
रामराज्य एक आदर्श राज्य था । इसमें सब लोग सुखी थे। सच्चरित्र थे । सब स्वस्थ्य थे। पर्यावरण स्वच्छ था। नदियॉं निर्मल थीं। सब में सब के प्रति आत्मीय भाव था । किसी प्रकार का कोई भेदभाव समाज में नहीं था ।
तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के अंतिम प्रष्ठों पर काग भुशुंडी जी का चरित्र चित्रण किया है । यह सुमेरू पर्वत के उत्तर दिशा में नीले पर्वत पर एक वट वृक्ष के नीचे बैठकर न जाने कितने लाखों वर्षों से रामकथा कह रहे हैं । रामकथा के ऐसे प्रवक्ता को केवल तुलसीदास जी के प्रज्ञा-चक्षुओं ने ही देखने का सौभाग्य प्राप्त किया । भगवान शंकर भी एक श्रोता के रूप में काग भुशुंडि जी की रामकथा को सुनकर लाभान्वित हुए । बारंबार तुलसीदास जी और उनकी रामचरितमानस में वर्णित रामकथा को नमस्कार ।
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लेखक : रवि प्रकाश पुत्र श्री राम प्रकाश सर्राफ
बाजार सर्राफा, निकट मिस्टन गंज, रामपुर उत्तर प्रदेश
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