सरस्वती, की कहु हम
सरस्वती, की कहु हम
पवन सँ चुमैत जे धार,
सपनक लहर मे बहि जाए,
धरतीक छाती कठोर चोट,
कखनो उमंगक मौन भाषा,
आब सिसकैत एक पुकार।
सरस्वती, की कहु हम?
तोहर धार रहै कखनो,
आब मात्र एक सुखायल कथा भ’ गेल।
फूल जत’ खीलैत हल सुगंधक संग,
आब ओत’ काँटे बिखैर जाए।
तैओ कोनो पाँखुरी,
सुनहेर सपना केँ बोझ उठौने,
ककरो फूल मे खिलबा लेल तरसैए।
सरस्वती, की कहु हम?
तूँ अजय छल,
आब क्षीण, दिशाहीन।
मुदा तोहर कथा समाप्त नै,
नदीक छाती मे लहेरक धड़कन,
फेर सँ गूँजत नव दिशाक ओर।
सरस्वती, की कहु हम?
—-श्रीहर्ष —–