सरल हो बैठे
तेरी अम्बक की “हाला” में,
चित को आज” भिगो” कर बैठे।।
शायद कोई “क्षण” जाए जाए,
सोंच के यही” सरल ” हो बैठे।।
मिलन की “आस” लगा कर के हम,
पहुँच गए” पनघट” के किनारे।।
शायद आएगी वो” सारंग”
जल पीने “पनघट” के किनारे।
सोंच रहे थे “घाट” पे बैठे।
मेरे “चक्षु” विकल हो बैठे।।
शायद कोई “क्षण” मिल जाये।
सोंच के यही”सरल” हो बैठे।।
आकर के उस “म्रगनयनी” ने।
घाट पे जब अपना “पट” खोल।।
मेरे मन के “विश्वामित्र” ने।
ईप्सा की “अपलक” को खोल।।
मन्दाकिनी में उस “काया” को।
हम तो नित्य” दर्श” कर बैठे।।
शायद कोई “क्षण” मिल जाये।
सोंच के यही “सरल” हो बैठे।।
हम दोनों में “एक”दूजे की।
मिलन के लिए “विकलता” ऐसी।।
पर दोनों ये “सोंच” रहे थे।
मिलन की कौन”पहल” कर बैठे।
शायद कोई “क्षण “मिल जाये।
सोंच के यही “सरल” हो बैठे।।
मन ही मन मे “फिर” दोनों ने।
खुद से ख़ुद “बातें” कर डाली।।
मेरे इस मन के “मधुबन” में।
आ जाओ “बन” कर बनवारी।।
मैं हूँ “राधा”तेरी मोहन ।
म्रगनयनी के “बयन” सुन बैठे।।
मन हो गया मेरा “उपवन” सा।
भाव मे “बृन्दावन” भर बैठे।।
शायद कोई “क्षण”मिल जाये।
सोंच के यही “सरल”हो बैठे।।
आशीष सिंह
लखनऊ उत्तर प्रदेश