सरपरस्त
क्यों ताक-झांक कर रहे पड़ोसी, इसका मुझको पता नहीं।
कब-कब पकी घर मेरे खिचड़ी, इसका मुझको पता नहीं।।
हम क्या कहते और क्या सहते हैं, बात नहीं यह अपनें जानें।
क्यों धकधक सा करे मेरा कलेजा, इसका मुझको पता नहीं।।
हर दर्द दिखाये घूम-घूम वो, जिन ज़ख्मों से न सरोकार मेरा।
मेरे रिसते ज़ख्म को देख वो बोले, इसका मुझको पता नहीं।।
लब खामोश रहे यह मानता हूँ, हर दर्द को पीना जानता हूँ।
पर कितने दर्द है मुझको सहना, इसका मुझको पता नहीं।।
वह लोग बहोत ही शातिर हैं, जो जानते हैं कर लेना दिखावा।
मिलता दिखलावे से किसे तसल्ली, इसका मुझको पता नहीं।।
हूँ मानता मेरे सरपरस्त तुम्ही हो, हैं आप ही तो मेरे रहबर।
पर मैं हूँ क्या नजरों में आपके, इसका मुझको पता नहीं।।
©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”
(सर्वाधिकार सुरक्षित ०३/०५/२०२४)