सरकारी दफ्तर में भाग (2)
संजीव उस दिन बहुत खुश था उसके पैर जमीन पर नही पड़ रहे थे, उस दिन उसका मन और उसका दिल बार-बार तहेदिल से अपने ईष्ट देव को धन्यवाद दे रहा था। उसे अगले दिन ही साक्षात्कार के लिये जाना था, डाकिये ने उसे बताया था, कि कुछ डाक विभाग की गलती की वजह से उसका साक्षात्कार लेटर लेट पहुँचा है। जिस पर संजीव ने डाकिये को धन्यवाद देते हुए कहा, ‘‘कोई बात नही अंकल जी अगर पहले आता, तब भी मैं कल जाता और अब भी मैं कल जाऊँगा।
इस खुशी में भी कही न कही संजीव का हृदय भावुकता से परिपूर्ण था, शायद यही वजह थी कि उस दिन इतनी बड़ी खुशी के बावजूद उन पलोें में भी उसकी आंखे कुछ नम थी और उसकी आंखों के सामने से बार-बार उसकी जिन्दगी की वो तश्वीर गुजर रही थी जो बार-2 उसे उसका वो दौर याद दिला रही थी और उसकी माँ के संर्घर्षों की वो दासतां ब्यान कर रही थी। जिसकी बजह से आज वो इस काबिल बना था।
दरसल, हुआ कुछ यूूं था, कि जब संजीव की ढाई वर्ष का था उसकी उस बाल अवस्था में ही उसके सिर से बाप का साया छिन गया था। संजीव की मां शिक्षा का महत्व बहुत अच्छी तरह से जानती थी। क्योंकि उसकी मां एक अनपढ़ महिला थी और इसी वजह से उसको वह काम करना पड़ा जो शायद उसके दादा परदादा ने कभी सोचा भी नही होगा, कि उनके घर की बहू आने वाले समय में ऐसा काम करेगी जो उनके खानदान में किसी न किया हो, शायद यही वजह थी कि अनपढ़ होने के बावजूद उसकी मां ने उसकी पढ़ाई लिखाई में कभी कोई रूकावट नही आने दी। उसकी मां कोई बढ़ा काम तो नही करती थी। वह बड़े-2 साहूकारों के घरों में जा-जाकर झाडू-पोछा करती थी। वहां से उसको जो भी मिलता था वह सब कुछ संजीव की पढाई में खर्च कर देती थी।
दरसल, संजीव और उसकी मां का एक बहुत बड़ा अतीत था, जो संजीव की मां ने उसे उसकी बढ़ती उम्र के साथ-साथ उसे बताया था, वो और उसकी मां एक शाही खानदान से ताल्लुक रखते थे। संजीव जब ढाई वर्ष का था तब उसके पिता गुर्दे खराब हो जाने की वजह से इस दुनिया से रूखसत हो गये थे। संजीव की मां सीता देवी ने उसको बताया कि उसके पिता के पिता यानि उसके दादा जी श्री भानूप्रताप सिंह अपने जमाने में बहुत बड़ी रियासत के मालिक थे, उनकी रियासत का नाम था श्यामतगढ़ रियासत। श्यामतगढ़ रियासत अपने वक्त की वो रियासत हुआ करती थी। जिसके चर्चे एक वक्त में हिन्दोस्तान में ही नही, बल्कि दूर-दूर विदेशों में भी थे। तुम्हारे दादाजी वीरता की वो जीती जागती मिशाल थे, कि जब भी कोई दुश्मन उन्हंे युद्ध चुनौती देता। वे उस चुनौती को तुरन्त स्वीकार करके युद्ध भूमि में कूद पड़ते। और हर युद्ध में रणवाकूओं का परास्त कर अपनी विजय पताका फहराकर ही रणभूमि छोड़ते। अंग्रेज भी उस रियासत में प्रवेश करने से पहले सौ बार सोचा करते थे। इतना खौफ था तुम्हारे दादा भानूप्रताप सिंह का। तुम्हारे दादाजी जितने बहादुर थे उतने ही वे नरम दिल भी थे। और अपनी प्रजा को बहुत प्यार करते थे
उनका भी एक बहुत बडा राजमहल था और उनके दो बेटे थे एक तुम्हारे ताऊ श्री वीर बहादुर सिंह और तुम्हारे पिता श्री दिग्विजय सिंह। तुम्हारी दादी जी के देहान्त के बाद तुम्हारे दादाजी ने अपने दोनों बेटो को बहुत लाड प्यार से पाला। तुम्हारे पिताजी उनके छोटे बेटे थे, इस वजह से तुम्हारे दादा जी तुम्हारे पिता से बहुत प्यार करते थे। संजीव की मां ने उसको बताया था कि उसके दादा जी की अपार सम्पदा थी जिसके चलते उसके पिता श्री दिग्विजय सिंह ने कभी कोई काम करने के बारे में नही सोचा। वो हमेशा जुआं, शराब में डूबे रहते, तुम्हारे पिता से मेरी शादी होना ये भी मात्र एक संयोग थी। मेरे पिता यानि तुम्हारे नाना जी बहुत गरीब थे। बेटी की शादी के लिए पैसे नही थे, एक दिन मै अपनी सहेली की शादी में गई थी, जहां तुम्हारे पिता शाही मेहमान बनकर आये और उन्होने में मुझे देखते ही पसंद कर लिया और अपने पिता राजा भानूप्रताप से कहकर मेरे पिता यानि तुम्हाने नाना जी के सामने मुझसे विवाह का प्रस्ताव रखा। मेरे पिता बहुत गरीब थे। राजा के घर से मेरा रिश्ता खुद चलकर आया है, इस बात से खुश होकर तुम्हारे नाना जी ने मेरी शादी के लिये हाँ दिया। मैं भी तुम्हारे पिता के स्वभाव से अंजान थी और पिता की गरीबी को देखकर मैं राजा के बेटे से शादी के लिये इंकार भी न कर सकी और तुम्हारे पिता से मेरा विवाह हो गया। शादी के कुछ दिन तो सब कुछ ठीकठाक रहा। लेकिन कुछ दिन बाद तुम्हारे पिता के साथ रहते-2 मुझे तुम्हारे पिता के स्वभाव के बारे में पता लगा, उनकी शराब, जुंआ की आदतो से जब मैं वाकिफ हुयी तो मैंने उन्हे समझाने की बहुत कोशिश की, मैंने उन्हे समझाया कि ये बात ठीक है और मैं जानती हूँ कि आप एक राजकुमार है, मैं यह भी समझती हूँ कि आपके पिता जी और आपके भाई आपसे बहुत प्रेम करते है और इसके चलते आपको काम करने की कोई जरूरत नही। लेकिन आप खुद कुछ काम, धन्धा तो किया कीजिये, आप अपनी ही रियासत की किसी मंत्री के साथ उठना बैठना शुरू कीजिए और उनसे राज्य में हो रही क्रिया प्रतिक्रिया से मुखातिव हुआ कीजिये। मैं जानती हूँ कि आपके पिता श्री और आपके भाई साहब के रहते आपको कोई कार्य करने की आवश्यकता नहीं है लेकिन कर्मशील मनुष्य हमेशा पूजनीय और हर किसी के प्रिय रहते है और कर्महीन मनुष्य एक वक्त के बाद संसार में अवहेलना के पात्र बन जाते है।
कहानी अभी बाकी है…………………………….
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