सम आयु
आयुएक धुंधले दर्पण की भांति
मेरी यह बुझी बुझी सी
बूढ़ी आँखें
जिनमें झाँक कर तुम
देखना चाहते हो
अपना अतीत का चेहरा।
वह चेहरा जो कभी
किसी कालीन की तरह
समतल, नर्म और नाज़ुक था
जिसे देखकर ही तो
मैं हो गया था
सदा सदा के लिए तुम्हारा।।
धन्य हो तुम
जो नहीं देख सकते
एक धुंधले दर्पण की भांति
प्रकाशहीन
मेरी इन बूढ़ी आँखों में
चाह कर भी अब
अपना वर्तमानिक चेहरा
क्यों कि तुम भी
अब हो गए हो जर्जर
मेरी ही तरह बूढ़े
और अंधे।
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सरफ़राज़ अहमद “आसी”