समीक्षा
फूलों के झरते पराग-एक अध्ययन
-शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’
गीत साहित्य की एक आदिम विधा है. गीत अपने प्रारम्भिक अवस्था से ही लोक, आदिवासी, विचार प्रधान एवं संगीत की स्वर लहरियों के रूप में समाज में उपस्थित रहा है. गीत नैसर्गिक अभिव्यक्ति का गेय रूप है. गीत उद्भव काल से ही लोक स्वर से फूटता हुआ, धीरे-धीरे अपने समय के वर्तमान के अनुरूप सृजनात्मक भाषा को अपनाकर साहित्यिक रूप ग्रहण करता रहा है. गीत कबीर, तुलसी, सूर और मीरा की रचनाओं से होता हुआ भक्ति, आत्मपरकता और आध्यात्मिकता वाली अंतर्वस्तु से आम पाठक को परिचित कराता रहा है. गीत की एक विशिष्टता यह रही है कि वह जितना आत्मपरक रहा है, उससे अधिक सामाजिक भी रहा है. गीत के विषय में हम कह सकते हैं कि उसके सृजन और गायन में सामूहिकता थी, जो आज तक बनी हुई है. गीत साहित्य के अनेक कालों से होकर, छायावाद की आकाशचारिता के बंधन से मुक्त होकर जीवन के यथार्थ से अपने को स्वछंदता के साथ जोड़ लिया है. सामवेद में छान्दसिकता का मूल स्वरूप स्पष्ट रूप से द्रष्टव्य है. गीत के चार प्रकार बताये गये हैं.
ग्राम्यगीत- लोकगीत को ग्राम्यगीत की श्रेणी में रखा जाता है.
अरण्यगीत- जो गीत आदिवासी मूल के लोग गाते हैं, उसे अरण्यगीत कहा जाता है
ऊहगीत- विचार प्रधान गीत यानीं कि साहित्यिक गीत को ऊहगीत कहा गया.
ऊहागीत- राग-रागिनियों का आश्रय लेकर रचे गये गीत जो वाद्ययंत्रों की सहायता से गाये जाते हैं, ऊहागीत हैं.
आदरणीया डा. वीना गर्ग की पुस्तक ‘फूलों के झरते पराग’ को पढ़ने का सौभाग्य मिला. ‘फूलों के झरते पराग’ कुल ६६ रचनाओं का मिलाजुला संकलन है, जिनमें २० कविताएँ हैं और शेष ४६ गीत. यहाँ यह उल्लेख कर देना आवश्यक है कि इनमें ‘स्थायी’ और ‘अंतरों’ का निर्वाह गीत की विशेषता के अनुसार नहीं हो पाया है किन्तु गेयता में कहीं कमी नहीं है. भाव के संप्रेषण का कहीं भी अभाव नहीं खटकता. ‘फूलों के झरते पराग’ से सुगंध किस प्रकार सँजोया जाता है, कवयित्री अच्छी तरह से जानती हैं. जब रात गहरी होती जाती है और नींद नहीं आती तो इसका भरपूर फायदा वह भूली-बिसरी यादों की पंखुरियों को खोलकर स्मृति के दीपों से गीत के आंगन के अँधेरे को प्रकाश देने का प्रयास करने लगती हैं, लेखनी उठाकर कविता लिखने लग जाती हैं और लिख रही होती हैं-
वे पल
जिन्हें भूलने लगा था मन
समय के थपेड़ों ने बहुत
दूर कर दिया था जिन्हें
उन्हीं पलों की याद
आहत मन को सहलाती रही
आज वही पल
आए थे मेरे पास
जैसे तट से रूठी यादें
फिर लौट आई हों
भिगोने सूखा रेतीला तट.
और वह अनायास अपने मन से पूछने लगती हैं-
क्या माणिक्यों से वे पल फिर कभी लौटेंगे
या फिर करूँगी प्रतीक्षा
इस पार खड़ी मैं राधा-सी.
और समय से पूछती हैं-
समय ! तुमने देखा है
मुझे पल-पल मरते
अपनी ही बुनी आशा के
धागों में उलझते.
रात भर चाँद चुपचाप चल रहा है और समय एक जली मोमबत्ती की तरह धीरे-धीरे पिघल-पिघलकर घटता जा रहा है. अभी धूप है किन्तु बूँदें भी झिमिर-झिमिर बरसेंगी. रात गर्म है किन्तु हवा भी यह कहते हुए अपनी उपस्थिति दे रही है कि ‘मैं हवा हूँ.’ और वह कहती हैं-
ज्योति-कणों सम छिटके तारे
दूर-दूर तक बिखरे सारे
पिघली हुई चाँदनी में फिर
मोती जैसे निखरे सारे
यह गीत बहुत ही सुंदर बन पड़ा है और एक बालगीत की श्रेणी में भी आ रहा है. दिन ढलता है पलकों से आँसू की तरह और पेड़ों की अमराइयाँ लाल सी हो उठती हैं और कवयित्री सूरज की लंबी परछाइयों को देखते-देखते प्रकृति की गोद में कहीं खो जाती हैं. अधिकांशत: गीत प्रेम और प्रकृति से जुड़े हैं जो कवयित्री के अंदर छुपी अनुभूतियों का समर्थन करते हैं और रचना में प्राण फूँकने का कार्य करने में सक्षम हैं, सफल हैं. जब आसमान टुकड़े-टुकड़े बरस रहा था, उस शाम, नरम-नरम पौधों को छूकर सर्द हवाएँ मचल रही थीं. सूरज छिप चुका था. कोई आहट नहीं और न शोर था और कवयित्री लिख रही थीं ‘जिंदगी का यथार्थ,पन्नों पर’ यही तो है जीवन का लक्ष्य और कवि कर्म. जब गीत कविता कागज के पन्नों पर सो चुकी होती है तब कवयित्री अपने मन से कहती हैं ‘आ,अब लौट चलें, साँझ सिंदूरी हो चुकी है और नयनों में एक संतोष की कस्तूरी महक रही है.’ कवयित्री मन कभी चैन से नहीं बैठता, सदैव ‘एक सुनहरा स्वप्न’ अपने मन और आँखों में पाले रहता है और कहता है-
चलो, झील के पार चलें प्रिय
जहाँ चाँद उतरा है नीचे
तैर रहा है निर्मल जल में
देख रहा मुखड़ा दर्पण में
कवयित्री को यह प्रबल विश्वास है कि-
गहन अँधियारे मनों में
दीप कोई फिर जलेगा
तमस कितना भी सघन हो
प्रात को कब तक छलेगा
वासंती फूलों, बिखरे हुए सितारों और गिरते हुए अनमोल सपनों से कवयित्री का इतना लगाव है कि वह कोहरे की चादर ओढ़े आसमान के निकलने पर जाड़े से ठिठुरा, धुँधला सा जो सूरज दिखायी दे रहा है, उसमें वह आशाओं की एक लकीर देखती हैं. यह ठिठुरा हुआ सूरज कोई और नहीं बल्कि समाज का वह अंतिम पंक्ति में खड़ा अभावों से जूझता हुआ होनहार बचपन है. वह इन अवस्थाओं को उत्साहित करती हैं और कहती हैं-
ये मौसम सुहाना
कुहुक का तराना
तुम्हारे लिए था
तुम्हीं ने न जाना
उमगती हवाओं का
छू-छू कर जाना
तुम्हारे लिए था
तुम्हीं ने न जाना
उनकी आशाएँ मतवाले बादलों से कहती हैं-
ओ ! मतवाले बादल आओ
कभी कहानी मेरी सुन लो
करुणा का जल बरसाओ
किन्तु सत्ता की चकाचौंध में इनकी आवाज सदा से दबती रही है, दब जाती है और वह इस बात पर अपने को विवश समझता है कि ‘जीवन तो चलता रहता है’ परन्तु कवयित्री उनका हौसला कम नहीं होने देतीं, साहस बढ़ाती हैं यह कह कर कि-
ऐसे नहीं मिली आजादी
कीमत बहुत चुकाई है
कितने जांबाजों ने इसकी
खातिर जाँ लुटाई है
उठो और संघर्ष करो. अंतिम विजय तुम्हारी है ‘हो रहा संघर्ष’
कवयित्री मन बहुत भावुक होता है. कवयित्री के मन में यादों के इतने झरोखे होते हैं कि मन कभी किसी में, तो कभी किसी में, विश्राम करता रहता है. गीत पत्थरों से फूटते हैं. जो यादें जितनी घनी भूत पीड़ा से, भाव की गहराई में दबी होती हैं, वे गीत के तीन तत्वों भाव, कल्पना और बुद्धि के संयोग से एक कालजयी रचना को जन्म देने में सहायक होती हैं और कवयित्री मन कह उठता है-
प्रिय तुम्हारी याद आयी
फिर नये दीपक जलाने
पत्थरों से फूट निकले
गीत कुछ मधुरिम सुहाने
और ऐसे जो गीत निकलते हैं, कहती हैं-
फूल हूँ मैं
आँधियों में मैं पला हूँ
दिन दुपहरी धूप में
पल-पल जला हूँ
ओस के कण से
भिगोया मैं गया हूँ
तोड़ डाली से
पिरोया मैं गया हूँ
मुसकराता ही रहा
जब तक जिया मैं
फूल हूँ मैं
और गीत की देवी पर इन फूलों को चढ़ाते हुए कवयित्री गाती हैं-
तुम सुनहले रूप की पहली किरण हो
मलय पर्वत से बहा सुरभित पवन हो
तुम हो अमृत में भिगोई चाँदनी-सी
प्रेम की पूजा का पहला आचमन हो
कामनाओं की सरस अभिव्यंजना हो
सौम्य, स्निग्ध, मधुर, मदिर मन रंजना हो
तुम मधुर लावण्य की स्रोतस्विनी-सी
नेह की देवी ! समुज्ज्वल वन्दना हो
जिंदगी की राह जिंदगीभर कँटीली होती है. यहाँ सदैव एक संघर्ष से जूझना पड़ता है. नयनों में नये सपने होते हैं और उन सपनों को पाने के लिए संसार का हर प्राणी विषम परिस्थितियों से लड़ता रहता है. आँखों से नींद समाप्त होती है. घर में पड़े पुराने फोटो मन को सांत्वना देते हैं. जिंदगी में कई ऐसे मोड़ आते हैं, जहाँ से लौटना दुष्कर और जोखिम भरा होता है. मन यह सोचता है कि ‘अभी अँधेरा है’ और कवयित्री मन कह उठता है-
धरती चुप है
अंबर चुप है
सभी दिशाएँ मौन यहाँ
लाल हुई क्यों
मही रक्त से
उत्तर देगा कौन यहाँ
और ऐसे में ‘माँ की चिट्ठी’ ही सहारा बनती है-
कहीं कोई जब अन्धकार-सा
मन में छाने लगता था
समय कभी तीखी बातों का
दंश चुभाने लगता था
जाने किस कोने में बैठी
फिर-फिर आस बँधाती थी
जब माँ की चिट्ठी आती थी
सनातनता और पारंपरिकता से पगे ये गीत अपने भावभूमि से कहीं विचलित नहीं होते और शब्दों, उपमाओं, कहनों, बिंबो, प्रतीकों, प्रतिमानों और समस्त काव्य-संपदाओं से भरपूर हैं. सांस्कृतिक समन्वय, शब्दों की मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि, भाषा की क्षेत्रीय प्रकृति, संरचनात्मक तत्व, गेयता, तुकांत शब्दावली ऐसे अनेक कारक हैं, जो रचनात्मकता की रसानुभूति और सौन्दर्यानुभूति से पाठकीय स्पंदन में सहयोगी और सहभागीता के पक्षधर हैं.प्रत्येक रचना समाजोन्मुखी और सामाजिकता की सहायक है. मुझे विश्वास है कि यह ८० पृष्ठ का ‘फूलों के झरते पराग’ पाठक मन को संपृक्त करने में सफल होंगे और साथ ही आदरणीया डा. वीना गर्ग जी को अनेकानेक धन्यवाद और अनंत शुभकामनाएँ, बधाई.
‘शिवाभा’ ए-२३३,गंगानगर
मेरठ-२५०००१ (उ.प्र.)
दूरभाष- ९४१२२१२२५५
पुस्तक का नाम- फूलों के झरते पराग
रचनाकार- डा. वीना गर्ग
प्रकाशक- रचनाकार प्रकाशन,वहलना,मुजफ्फरनगर,उत्तर प्रदेश
कुल पृष्ठ- ८०
कुल रचना- ६६
संस्करण – प्रथम २०१८ ई०
मूल्य- १५० रुपये