समीक्षा तुम्हारी ….
कहो आज क्या लाये हो
अपने तशरीफ़ के पिटारे में ?
तुम रोज़ …हाँ रोज़ ही तो आते हो
लोग तुम्हे ” दिन ” बुलाते हैं …,
२४ घंटे बीत जाने के बाद या कभी उससे पहले ही –
तुम्हारी समीक्षा की जाती है
कुछ यूँ –
आज का “दिन” बड़ा अच्छा बीता
तो कोई कहता है की अरे रे बड़ा ख़राब गया
कोई कहता है की मध्यम ही रहा ,
तो हे “दिन” ..ये समीक्षा तुम्हारी नहीं
वरन अप्रत्यक्ष में व्यक्ति अपने कर्मों , घटनाओं और आपबीती का कर रहा होता है ,
तुम तो सबके लिए उसी कलेवर में आते हो
पर तुम्हें तरह – तरह की संज्ञाओं से हम ही सजाते हैं
हे “दिन” मैं मनुष्य हूँ
बहुत कमज़ोर
मैं एक आलम्ब ढूंढता हूँ
अपनी व्यथा को मढ़ने के लिए
मैं सुख के लिए तो स्वयं को उत्तरदायी कहता हूँ
लेकिन बुरे के लिए –
ईश्वर , भाग्य …दिन …समय …इन सबको ख़तावार बना देता हूँ ,
चलो “दिन” मेरे मित्र …मेरे सखा….या की मेरे दुश्मन …मेरे विरोधी
चलो तुम कल फिर आना बाँट जोहूंगा तुम्हारी …
और कल फिर करूँगा समीक्षा तुम्हारी …|
द्वारा – नेहा ‘आज़ाद’