समाज
समाज
पानी सा तैरता जीवन
धपाक छपाक फिर निशब्दता
निशब्दता से उपजता कोलाहल
कोलाहल में सन्नाटा
सन्नाटों से उपजता शोर
शोर से हो जाता भयावह माहौल
माहौल को और गंभीर बना देता अंतःकरण का आर्तनाद
आर्तनाद कों अब सुनने वाला कोई नहीं
नहीं नहीं अब और नहीं कहने वाला है कोई
कोई शेष लगता बचा नहीं, मरघट सा जीवन लगे सही
सही ग़लत का भेद नहीं, अपने को माने सही सभी।
सभी ने की सभा ज़बरदस्त
ज़बरदस्त का भी निकलने लगा है दम
दम की तो कोई बात नहीं, अपने को कमतर अब आंकता नहीं कोई ।
कोई कोई है अब भी अच्छा, जो कर सकता है समाप्त बुराई,
बुराइयों से ही पनपता व्यभिचार है
इसे ख़त्म करने में ही सबका कल्याण है।
डॉ. अर्चना मिश्रा
दिल्ली