समाज का रुख
बातें दुनियादारी की करके रिश्ते कुछ ऐसे निभाते हैं,
अपनों की खुशियां दबाकर पहले समाज के लिए सोचते हैं,
शुरुआत करते कुछ अच्छे बुरे की तो ताने पहले यही मारते हैं,
नाम होता जब हमारा तो सामने तारीफ और पीछे बुराई भी यही करते हैं,
सजाकर अपनों की महफ़िल बुराई जमाने की करते हैं,
गलतियों पर अपनी पर्दा डालकर दूसरों को दोष देते हैं,
पंचायत बिठाते दूजे के आंगन की अपने आंगन में न झांकते हैं,
होता कांड अपने यहां तो दीवारों के कान तक बन्द करते हैं,
जो बोल न पाए तकलीफ अपनी उसको बहुत तड़पाते हैं
इंसा की क्या बात करे जो मासूम बेजुबान तक को न बख्शते है,
तकलीफ में देखकर किसी को सोशल मीडिया पर हलचल मचाते हैं,
आती हैं बारी जब मदद करने की तो पीछा छुड़ाकर भागते हैं
होता कुछ भी गलत तो बेझिजक समाज को दोष देते हैं,
लेकिन बना है यह समाज हमी से यह हम क्यूं भूल जाते हैं