समाज का दर्शन
सम्मान की परवाह करने वाले अक्सर अपनो की जंग हार जाते है,
जो करते हैं अपनों से लड़ने की कोशिश अपना स्वाभिमान हार जाते हैं,
करते हैं शान से दुनियादारी की बातें यहां जो सब लोग,
अक्सर वही दुनिया की चाले समझने में नाकाम हो जाते हैं,
कुछ नहीं थे जब हम तब बेफिक्री से चलते थे इस जहां में,
सब कुछ मिलने के बाद तो एक छोटे डंक का भी हिसाब रखते हैं,
तोड़ी बंदिशें जिस समाज की नैतिकता की छत्र छाया में,
आज उसी नैतिकता की आड़ में इंसानियत छिपाए बैठे हैं,
फर्क भूल रहे हैं खुद इंसानियत और हैवानियत के बीच का,
पर ऊंच नीच का ज्ञान सबको देने के लिए तैयार बैठे हैं,
फिक्र करते जिस शख्सियत को हमेशा ऊंचा बनाए रखने की,
आज उसी शख्सियत के आड़ में मासूमियत दबा रहे हैं,
बेजुबानों की मौत पर जो बहाते हैं घड़ियाली आंसू अपने
वही अपनी तन्दरूस्ती के लिए बेजुबानों का मांस चाव से खा रहे हैं,
ढिंढोरा पीटता है समाज एक तरफ जहां मासूमियत और बचपने का,
वही दूसरी ओर इसी बचपने को कभी श्रम तो कभी दरिंदगी के हवाले कर रहे हैं,
बनाई थी जो परंपराएं कभी हमारे समाज को आगे बढ़ाने के लिए,
आज उन्हीं परंपराओं की आड़ में समाज के बढ़ते कदम रोके जा रहे हैं,
क्या सम्मान होगा जहां में नारी पुरुष की विकसित होती मानसिकता का,
जब हर ओर भैडियों और रावण के अवतार छिप कर बैठे हैं।