समाजवाद सुनहरा शब्द है
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समाजवाद शब्द की उत्पत्ति
विद्रोह के कोख से होना था किन्तु,
कायरों की मानसिक संतान बना।
असुविधाओं से थककर इसने नारे गढ़े
क्रोध और घृणा से ओतप्रोत।
सत्ता की लूट हमारे अधिकारों की लूट है।
समाजवाद यह समझने या समझाने में
अनुतीर्ण रहा।
हम कायर ही तो हैं
ताल ठोंककर हमारे ही सामने
हमारी मानसिक संतान खड़ी है।
विद्रोह बनिए का तराजू होता
न जरा कम न थोड़ा ज्यादा
समाजवादियों का सौदा होता।
समाजवाद की भाषा को
जो पढ़ा रहा है व्याकरण।
उसके मन में भ्रष्टाचार है गहन।
हमारे खाये-पिये को डकार में
ढूँढ कर घोषित करेगा हमारी जाति
समाजवाद या अर्थवाद।
हमें पेड़ों की जड़ों में झोंककर
समाजवाद उगाने की प्रेरणा पाने वाले
हमारे दोस्त हैं।
हमारे टूटे-फूटे अस्तित्व और
जीर्ण-शीर्ण काया को ओढ़ना इसलिए
हमारी ही नियति होना है।
सूत्रधार हम हैं समाजवाद के
कर्णधार किन्तु,
सत्ता के भागीदार हैं।
उसका समाजवाद खाली कनस्तर है
जिसे पीटने के लिए हम
भाड़े पर लाये गए लोग हैं।
हम कल अर्थवाद के आग में जले
आज समाजवाद के शोले में धधक रहे हैं।
अब तो समाजवाद हमारे लिए गाली पर,
तुम्हारे लिए एक सुनहरा शब्द है।
तुम उसे बिछाओगे,ओढ़ोगे,पहनोगे
हम जानते हैं और
हमें चिढ़ाओगे यह भी जानते हैं।
यह हमारी नहीं समाजवाद की नियति है।
विधियाँ और विधान ही समाजवादी नहीं है
तो
हमारी भिंची हुई मुट्ठियों को भग्न मन
और खुली हथेलियों को भिक्षापात्र
ही कहोगे न।
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अरुण कुमार प्रसाद 12/9/22