समय चक्र
अब आप इसे कुछ भी कहें
पर मैं तो समय चक्र ही कहता हूँ,
इसे बदलाव की बयार ही मानता हूँ
पर इसे विडंबना नहीं कह सकता हूँ।
देखते- देखते क्या कुछ नहीं बदला
हमारा रहन- सहन खानपान, जीने का अंदाज़
शिक्षा, कला, साहित्य, संस्कृति
आवागमन के साथ, चिकित्सकीय व्यवस्था
तकनीक का बढ़ता संजाल, मरती संवेदनाएँ ,
आत्मीयता का छाता अभाव
मशीन बनता जा रहा मानव जीवन
घटती हरियाली, पेड़- पौधे, लुप्त होते कुएँ तालाब
खोते जा रहे प्राकृतिक जलस्रोत, सरोवर
सिकुड़ती नदियाँ, सिसकते प्राकृतिक वातावरण
पशुओं से सूने होते हमारे द्वारों की रौनक
खेल- खलिहानों की खोती रौनक
मशीनों पर निर्भर होता जा रहा हमारा मानव जीवन
खाने- पीने की चीज़ों का आधुनिकीकरण
अप्राकृतिक खाद्य पदार्थों का लुप्त होते जाना
स्वास्थ्य पर बीमारियों का पहरा
समय चक्र ही तो है।
पशु- पक्षियों, कीड़े- मकोड़ों की
लुप्त होती प्रजातियाँ और उनके सुगमता से
रहने की उपलब्धता खोते ठिकाने,
नदी- नालों के किनारों पर बढ़ते अतिक्रमण
और बढते जा रहे कंक्रीट के जंगलों का बेतरतीब जाल
पर्यावरण का बढ़ रहा असंतुलन
बाढ़, सूखा, भूस्खलन, बादल फटने ही नहीं
बढ़ती प्राकृतिक आपदाओं के बीच
हमारे मानवीय संबंधों, रिश्तों से
लुप्त हो रहा आत्मीय भाव
अविश्वास का हावी होता राक्षस
औपचारिक होते जा रहे हमारे आपके हर रिश्ते
स्वार्थ की बलि बेदी पर हो रहा रिश्तों का खून।
रिश्तों को निभाने की नहीं ढोने की विवशता
न चाह कर भी रोते हुए हँसना और हँसते हुए जीना
समयाभाव का हर समय हमारा रोना
मजबूरी है का तकिया कलाम दोहराते हुए जीना
समय चक्र नहीं तो क्या है?
दोषी हम आप नहीं सिर्फ़ समय है
यह कह देना भला कितना है सही
सिवाय इसके कि दोष तो समय का है
हम सब तो दूध के धुले बड़े भोले हैं
गंगा में डुबकी लगाकर अभी तो
एकदम पाक साफ़ होकर निकले हैं।
सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा उत्तर प्रदेश