समय चक्र और जीवन सफर !
माता के गर्भ से,
प्रारंभ हो गया, जो
जीवन का सफर,
और फिर,
एक निर्धारित समय पर,
आ गये हम धरती मां की गोद पर,
तिल तिल कर,
कब बड़े हो गए,
यह पता ही नहीं चला।
पहले पहल,
हाथ पैर,
हिले डुले,
फिर हुंकारे भरने लगे,
धीरे धीरे से फिर हमने,
अलटना पलटना शुरू किया,
अगली कड़ी में,
तब हमने,
घुटनों के बल पर,
घिसट कर चलना,
शुरू किया,
अब बैठने का उपक्रम,
आरंभ हुआ,
फिर हाथ पैर के सहारे,
खड़े होने का उत्क्रम हुआ,
इस दौर को भी जब हमने,
सफलता से पा लिया,
तब जाकर के हमने,
गिरते पड़ते चलना शुरु किया।
यह क्रम यों ही चलता रहा,
अगला पड़ाव तब हमने छू लिया,
अब तो हम दौड़ने भी लगे,
कभी कभार गिरते भी रहे,
कुछ देर तक रो भी लिए,
इधर उधर देख कर,
जब कोई मदद गार नहीं आया, तो
तब स्वंय ही प्रयास किया,
उठ खड़े हुए और चलना शुरु किया,
फिर से दौड़ भी लगाई,
और मन की मुराद पूरी कर के,
थक हार कर सुस्ता लिए।
यह क्रम फिर कभी थमा नहीं,
बचपन आया,
और चला गया,
तरुणाई आई,
और गई,
यौवन की दहलीज में प्रवेश किया,
और यहीं से फिर शुरु हुआ,
घर गृहस्थी का जीवन चक्र,
पूरे मनोयोग से इसका भी सामना किया,
बच्चों का पालन-पोषण ,
शिक्षा और प्रशिक्षण,
जरुरत के मुताबिक,
अपनी सामर्थ्य के हिसाब से,
निर्वहन करता रहा,
जिसे अपना धर्म समझ कर पूरा किया, लेकिन
वह तो अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह था,।
यह निर्वहन तब तक चलता रहा,
जब तक कि बच्चों ने,
घर गृहस्थी में प्रवेश किया,
अब उनकी अपनी गृहस्थी है,
और हमारी अपनी हस्ती है,
उन पर वही सब कुछ करने का भाव बोध है,
हम बुजुर्गो की अपनी सोच है,
और अपना कल्पना लोक ,
कैसे हम अपने लोक परलोक को सुधारें,
कैसे अपने किए हुए को बिसारें,
इन्ही मकड़ जाल में हैं फंसे हुए,
गिन रहे हैं गिनती।
अब तो हम,
हैं कितने दिन के,
अब शेष बचे हुए हैं कितने दिन,
समय चक्र ने हमें यहां तक तो,
हमको,पहुंचा दिया,
समय चक्र चलता रहा,
सब कुछ हमारे ही सम्मुख है घटा,
और हमें कुछ पता ना चला,
शिशु से लेकर बुजुर्ग तक का, अब
यह जीवन चक्र पूरा हो रहा,
विधि के विधान के अनुसार,
शायद यही है जीवन का सार।