समय के साथ
समय के साथ क़दम बढ़ाए रहे हैं,
भोर से साँझ तक बिताए जा रहे हैं ।
हर सुबह आंखें खुलती है इक आस के साथ,
इसी आस में ही वक़्त को पीछे छोड़े जा रहे हैं।
उलझन सी उलझाए रहती है मन को,
चेहरे पढ़ने का अभ्यास किए जा रहे हैं।
जीना चाहते थे जब राहत देता जीवन,
क़दम क़दम पर इम्तिहान दिए जा रहे हैं।
पथरीली राहों को भी पार कर आए,
तपती रेत को सोना समझे जा रहे हैं।
छोड़ दी है आस कुछ भी सुलझाने की,
बस इंतज़ार में ही साँस खपाए जा रहे हैं।
हर साँस के साथ बस उठता एक ही प्रश्न है,
वक़्त के हाथों यूँ खिलौना क्यों बने जा रहे हैं।
डॉ दवीना अमर ठकराल’देविका’