समय की तेज धारा में
गीतिका
विधाता छंद
समय की तेज धारा में ,बहा जाता है मेरा मन।
फरेबी है जहाँ सारा ,कहाँ ढूढूं मैं अपना पन।
समय की दौड़ में भूला , मैं अपना आज हूँ यारो –
ठगा खुद को स्वयं ने ही,कहाँ है मेरा भोला पन।
मढ़ा है दोष औरों पर ,सदा अपनी बे-हाली का ,
मैं पुतला हूँ फरे’बों का ,कहाँ है मेरा सच्चा -पन।
फरक है आसमां भर का ,मेरी कथनी-औ-करनी में ,
बनावट की धवल चादर ,छुपाती मेरा काला पन।
चढा मैं बाँग देता हूँ सुबह को भीत पर निश दिन
मैं गुम हूँ खुद अंधेरों में ,कहाँ मेरा उजाला -पन।
भरूं मैं दम्भ औरों को दिखाने का सतत दर्पण,
नकाबों के छुपा पीछे, कहाँ देखूं मैं अपना-पन।
मैं दिखता हूं बहुतरूपी , कभी लालू कभी राजा
‘अटल’ पूछे स्वयं से अब ;कहाँ मेरा वो अपना-पन।