समय का भंवर
फंसा रहा मैं समय के
उस भंवर में।
जिस समय की कोई
चाल ही ना थी।।
उलझा रहा मैं संगीत के
उस स्वर में में।
जिस स्वर की कोई
ताल ही ना थी।।
सहमा रहा मैं प्रकृति के
उस कहर से।
जिस कहर की कोई
ढाल ही ना थी।।
खफा रहा मैं जालिमों के
इस शहर में।
जिस शहर की कोई
मिशाल ही ना थी।।
भटकता रहा मैं झाड़ियों के
उस ढहर में।
जिस ढहर की कोई
पताल ही ना थी।।
हर्षता रहा मैं उम्मीदों की
उस डगर में।
जिस डगर की कोई
तलाश ही ना थी।।