समय की गति, और सामाजिक परिवेश!!
यह कैसा समय आया,
अपना भी दिख रहा पराया,
पहले मिलने पर हर्षित हो जाया करते थे,
अब दिखते हैं तो, दूर से ही मुस्करा कर निकल जाते हैं।
बिमारियां कितनी ही देखी है जीवन में,
हर बार सुनकर हाल जानने को जाया करते थे,
खुद भी हुए हैं जब बिमार,
तो अपनों के संग, और भी आया करते थे।
ऐसा कभी हुआ नहीं,
जब हमने किसी के दुखी होने पर धीरज बंधाया न हो,
हुआ कुछ भी हो, किसी को,
हमने मानव धर्म निभाया न हो।
लेकिन अब जब से यह बिमारी आई है,
सरकारों ने एसी परिस्थिति बनाई है,
किसी से ना मिलो,यह संक्रमण आ जाएगा,
कहीं भी मत जाओ, इसका असर हम पर पड़ जाएगा।
देश में तीन-तीन बार घर से बाहर निकलना प्रतिबंधित रहा,
कुछ लोगों को छोड़ कर आमजन घर पर ही कैद हो गया,
कितनी ही समस्याओं से इंसान जूझता रहा,
नौकरियों से भी वह मरहूम हो गया।
हजारों ने अब तक गंवाई है अपनी जान,
कितनों को नसीब हो पाया है अपनों का जहान,
वह मर गये थे,पर अपनों के हाथों चिता नहीं पा सके,
मानव धर्म को निभाने,हम भी तो ना जा सके।
यह कैसा वातावरण बना दिया है आज के समाज ने,
अंतिम दर्शन को भी जाने से हम कतराने लगे ,
किसी के दुख-सुख की तो अब परवाह ही नहीं है,
अपने भी अपने को अपने पास बुलाते नहीं हैं।
अब तो इस तरह से मन उबने लगा है,
आदमी-आदमी से बिदकने लगा है,
अब कब तलक घर पर बैठ कर हम रह पाएंगे,
कब तलक हम अपनों की दूरी सह पाएंगे,
अब तो कुछ ऐसा समाधान खोजना पड़ेगा,
यह संक्रमण तो अब आगे भी चलता रहेगा,
तो क्यों न अब सब कुछ सामान्य से इसे स्वीकार कर लें,
परहेज को करते हुए, पूर्व वत अपनी दिनचर्या पे चल लें।
वह सामाजिक ताना-बाना जो हमें बिरासत में मिला ,
जिसे हमने अपने-अपने जीवन से विलग कर दिया,
ना हम किसी के साथ में,अपना पन जता रहे हैं,
और ना ही कोई हमसे,अपना दुखड़ा सुना रहे हैं।