समता बिन मानवता
समता बिन मानवता
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यह सोच हैरान हूं
कि इंसान है सबसे बेहतर ।
हां मैं परेशान हूं
इंसान माने खुद को श्रेष्ठतर।
क्या हम सचमुच में महान हैं?
या फिर निज दशा से अनजान हैं।
अन्य प्राणियों में नहीं है
धर्म,जाति देश काल की भेदभाव।
अन्य प्राणियों में कहां है ?
रंग-रुप भाषाई अनुरूप बर्ताव ।
हम इंसानों की उपज है
अमीरी गरीबी की रेखा ।
क्या सृष्टि में हम सा
कोई अजब प्राणी देखा ।
निंदनीय है संपन्न वर्ग
जिसके नजरों में भुखमरी,गरीबी है ।
चिंतनीय है यह मुद्दा
जिसके पलड़ेे में लाचारी, बदनसीबी है ।
ये कैसी व्यवस्था बनाया हमने
गुलामी का भयंकर रूप है ।
भाग्य में किसी का आजीवन छांव
तो किसी दामन में तपती धूप है ।
समता बिन मानवता ,
मृग मरीचिका तुल्य है ।
कहीं हो ना जाए जीवन संघर्ष
आखिर सबके लिए जीवन बहुमूल्य है।
©®?मनीभाई रचित