समझ न आये
क्या लिखूँ ,कैसे लिखूँ
कुछ समझ न आये….
शब्द खो गए से लगते हैं
जज़्बात सो गए से लगते हैं
ये कैसा दौर है
शोर ही शोर है
कहीं ढ़ह रहा कोई पुल
कहीं धमाकों का ज़ोर है
लहू के छींटों से रंगा
चीखों से सजा…..
ये कौन सा बाजार है
कुछ समझ न आये…..
राख के ढ़ेर पर बैठा
किसका बालक
वहां रो रहा
कोई यत्न करो
चुप करवाओ उसे…
जाग जाए न कहीं
पास ही ईमान सो रहा
तुम खड़े मुस्कुरा रहे
किसका चित्र बना रहे
कुछ समझ न आये….।।
सीमा कटोच