समंदर
समंदर
क्या कभी तुमने समंदर में शहर देखा है?
क्या कभी तुमने समंदर में बसर देखा है?
कहते हैं कृष्ण की द्वारका को
समंदर ने था समाया खुद में ।
क्या इस रहस्य को कभी अपनी नज़र देखा है।
हां कुछ ऐसा ही समंदर है जिगर के अंदर
है समंदर मगर वो, मगर मैं खुलकर रो नहीं सकती।
हैं अश्क प्रीत के मोती इनको खो नहीं सकती।
मेरी चाहत का शहर भी है डूबा ग़मों के समंदर में,
था बसेरा चाहतों का कितनी,बता नहीं सकती।
है समंदर सा जिगर,मगर मैं उसमें जा नहीं सकती।
हां, मेरे अश्कों से ही हुआ है समंदर खारा।
खुद तो डूबी हूं मगर तुझको डुबा नहीं सकती।
अधूरे ख्वाब और तमन्नाओं का है बसेरा इसमें,
तू है आफताब-ए-खुशी, तुझको समा नहीं सकती।
है असीम अपार मेरी वेदना का सागर,
गहरा है कितना, मैं यह तुम्हें दिखा नहीं सकती।
हैं अनमोल रतन जख्म और ग़म, नीलम इसमें
अनगिनत हैं मैं तुमको गिना नहीं सकती।
नीलम शर्मा