समंदर में आग है
मछलियां, शैवाल,
व्हेल, मगरमच्छ,
सब है आक्रोश में।
शिकार कर रहे,
शक्ति के जोश में।
उबल रहा है जल,
तटों पर झाग है।
ओ धीवर मत जाना तुम,
समंदर में आग है।।
कटे फटे हुए हैं बदन,
घातक प्रहार से।
दल बदल हो रहे,
इस पार से,उस पार से।
भेद खुल रहे यहां,
हर चेहरे पर दाग है।
ओ नाविक मत जाना तुम,
समंदर में आग है।।
योजनाएं बन रही,
ज्वार रूप धारण कर।
है गुजरना छोर तक,
प्रेम का वरण कर।
टूटे दिल है कई,
उन्हीं में अमन की राग है।
ओ खिवैया संभल जाना तुम,
समंदर में आग है।।
रोहताश वर्मा “मुसाफिर”