सभी ख़त हमारे जलाने लगे हैं।
ग़ज़ल
काफ़िया- आने
रदीफ़- लगें हैं।
122 122 122 122
मुझे इस तरह वो भुलाने लगें हैं।
सभी ख़त हमारे जलाने लगें हैं।
कभी साथ छूटे न अपना कहा था
वही छोड़कर दूर जाने लगें है।
जिन्हें ख़ास समझा वो’ निकले पराये
हमारा वही दिल दुखाने लगें हैं।
चले जा रहे ग़ैर के साथ हमदम
हमें देख नज़रें झुकाने लगें हैं।
करी थी बड़ाई जिन्होंने हमेशा
वही अब बुराई बताने लगें हैं।
जो’ सुनते कभी शायरी थे हमारी
उन्हें गीत उनके सुहाने लगें हैं।
वो’ बदनामियाँ कर रहे हैं जहां में
मुझे वो नज़र से गिराने लगें हैं।
सदा ख़ुश रहे बेवफ़ा ज़िंदगी में
कि “अभिनव” यहाँ मुस्कराने लगें हैं।
मौलिक एवं स्वरचित
अभिनव मिश्र “अदम्य”
शाहजहाँपुर, उ.प्र.
सर्वाधिकार सुरक्षित यह मेरी स्वरचित एवं मौलिक रचना है जिसको प्रकाशित करने का कॉपीराइट मेरे पास है और मैं स्वेच्छा से इस रचना को साहित्यपीडिया की इस प्रतियोगिता में सम्मलित कर रहा हूँ।