सब लोग बुरे नहीं होते……
बात कुछ साल पहले की है।मैं चंडीगढ़ जाने के लिए दिल्ली बाईपास पर खड़ा था।काफी देर प्रतीक्षा करने के बाद भी मुझे चंडीगढ जाने वाली बस नहीं मिली थी।घने कोहरे के कारण हाथ दो हाथ की दूरी भी मुश्किल से दिखाई दे रही थी।ऊपर से सुबह की कड़कड़ाती ठंड ने मुझे ठिकुरने पर मजबूर कर दिया था।दृश्यता शून्य होने के कारण सभी गाड़ियां रेंग कर चल रही थी।हर कोई अपने गन्तव्य पर जल्दी पहुंचना चाहता था।बस न मिलने की टीस वहां खड़े प्रत्येक यात्री के मुख पर स्पष्ट देखी जा सकती थी।बस स्टॉप के पास ही चाय के स्टाल पर एक बड़े से पतीले में चाय ख़ौल रही थी।कुछ यात्री चाय की चुस्कियां लेकर शरीर को गर्माहट देने का प्रयास कर रहे थे।बस की प्रतीक्षा में लोग बार -बार अपनी कलाई पर बंधी घड़ियां देख रहे थे।पता नहीं क्यों आज सार्वजनिक वाहन रोड से नदारद थे।काफी इंतज़ार के बाद एक कार तीव्रता से हमारे पास आकर रुकी।गाड़ी के रुकते ही भीड़ ने उसे बंदरों के झुंड की तरह चारों तरफ से घेर लिया।तब कार चालक को स्वयं कार से नीचे उतरकर आना पड़ा।उसने यात्रियों को बड़ी आत्मीयता से बताया कि वह सिर्फ चंडीगढ़ जाने वाले यात्रियों को ही बैठाकर ले जायेगा।कार चालक की बात सुनकर लोगों की भीड़ निरुत्साहित होकर छंट गई।मैंने गाड़ी वाले से बात की तो उसने मुझे गाड़ी में आगे बैठने के लिए कहा।गाड़ी मिलते ही मेरे लिए “अंधा क्या चाहे बस दो नयन” वाली कहावत चरितार्थ हो आई थी।मैं भी बगैर समय व्यर्थ किये ड्राइवर के पास खाली पड़ी सीट पर जाकर बैठ गया।गाड़ी में पिछली सीट पर पहले से दो सवारियां बैठी हुई थी।कार का ड्राइवर मेरा हमउम्र ही था।उसका व्यवहार मुझे दोस्ताना सा लगा।वह जल्दी ही सहयात्रियों से घुल- मिल गया था।सफ़र के दौरान भी वह खूब हंसी-ठिठौली करता रहा।ह्यस-परिह्यस के बीच हम कब चंडीगढ़ पहुंच गए हमें पता ही नहीं चला।कार ड्राइवर मुझे नियत स्थान पर उतार कर आगे बढ़ गया।मैं निःशब्द वहीं खड़ा उसे तब तक देखता रहा जब तक वह आंखों से ओझल नहीं हो गया।अब यात्रा समाप्त हो चुकी थी।जीवन की अनवरत यात्रा में पीछे छूट गया था वह कार चालक और मेरे सफर के सहयात्री।अगला सफ़र शुरू हो चुका था।घर पहुंचने का सफ़र।मेरा घर बस स्टॉप से महज पांच मिनट की दूरी पर ही था।इस पांच मिनट की दूरी को मुझे पैदल ही नापना था।मैंने घड़ी की और नज़र दौड़ाई ग्यारह बजने वाले थे।मेरी पीठ पर लदे बैग में बोझ कुछ ज्यादा ही था पर घर जल्दी पहुंचने की चाह में मेरे कदमों की रफ़्तार स्वयं ही बढ़ चुकी थी।जब मैं घर पहुंचा तो श्रीमती जी बगीचे में पौधों को पानी दे रही थी।यह उसकी रोज़ की दिनचर्या थी।यह कार्य वह सदैव उत्साह से परिपूर्ण होकर करती थी।हरे-भरे पौधे और चहकते हुए रंग -बिरंगे फूल उसे हमेशा ही आत्मिक सन्तुष्टि देते थे।प्रकृति के लुभावने दृश्य उसे सदैव लालायित करते थे।-आ गए आप?पीठ पर लदे बैग को सतर्कता से उतारते हुए मेरी पत्नी ने उत्साह से पूछा था।तब मैंने भी हंसकर उसका अभिवादन स्वीकारते हुए बस ” हाँ” कहा था।-यात्रा कैसी रही आपकी?पत्नी ने पुनः प्रश्न पूछा तो मैं चौक उठा था।यात्रा……यात्रा तो कब की पूरी हो गई।बस मैं ही यात्रा के रोमांच और सुखद अहसास में फंसा हूँ अभी तक।श्रीमती जी मेरी बात पूरी होने से पहले ही मुस्कुराते हुए रसोई में चली गई।वैसे उसे भी शायद मेरी बुझी-बुझी और उलझी बातों में कम ही आनंद आता था।घर पर कुछ देर आराम करने के बाद मुझे अहसास हुआ कि मेरा पर्स उस गाड़ी में ही छूट गया है।जिसमें मैं दिल्ली से चंडीगढ़ आया था।मेरे कई महत्वपूर्ण दस्तावेज तथा हज़ारों रुपये की नगदी थी उस पर्स में।अगर किसी गलत व्यक्ति ने मेरे दस्तावेजों का दुरुपयोग कर लिया तो …..?इस विचार की परिकल्पना मात्र से मैं सिहर उठा।मन में अनायास किसी अनचाहे डर ने अतिक्रमण कर लिया था।अनचाहे डर के मारे मेरा पूरा शरीर पसीने से तर -बतर हो गया।किसी भी प्रकार की अनचाही परेशानी से बचने के लिए मैंने तत्काल पुलिस स्टेशन जाकर प्राथमिकी दर्ज करवाने की मन में ठान ली थी।घबराहट में ही मैं थाने जा पहुंचा।थाने के दरोगा ने जब अपनी कड़कड़ाती आवाज़ में मुझसे गाड़ी का नंबर पूछा तो मैं भी अचानक सकपका गया।आखिर भाग- दौड़ की इस ज़िन्दगी में नंबर नोट करने की जहमत भला कौन उठाता है आजकल।दरोगा साहब बात -बात पर मुझपर अपना रौब झाड़ रहे थे।उनकी कड़कती आवाज़ से मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई थी।ख़ैर अपनी सूझबूझ से मैं दरोगा साहब को संतुष्ट करने में कामयाब रहा।वहां की कानूनी औपचारिकताओं को निपटाकर मैं घर लौट आया।इस घटना को कई दिन गुज़र गए थे।मैं एक बार फिर जीवन की गतिविधियों में संलिप्त हो गया था।प्राथमिकी दर्ज होने से दस्तावेजों के दुरुपयोग का भय भी मेरे मन से कम हो गया था।आम दिनों की भांति एक दिन जब मैं ऑफिस से घर लौटकर श्रीमती जी के साथ चाय की चुस्कियां लेने में व्यस्त था तभी किसी ने बाहर डोर बैल बजाई।डोर बैल की करकस आवाज ने अनायास ही आनंद के क्षणों में विघ्न डाल दिया था।बार-बार डोर बैल का बजना बाहर किसी की उपस्थिति का संकेत था।मैंने अनमने मन से चाय का कप एक और रखकर दरवाजा खोला।मैं हतप्रभ था।मेरे सामने कोरियर वाला खड़ा था।-साहब आपका पार्सल।कोरियर वाले ने मेरे हाथ में एक पैकेट थमाया और एक कागज मुझे हस्ताक्षर करने के लिए दिया।मैंने तुरंत हस्ताक्षर करके उसे वह कागज लौटा दिया।कोरियर वाला मुझे पैकेट देकर जा चुका था।मैं अभी तक दरवाज़े पर खड़ा विस्मय से उस अनिमंत्रित पार्सल को टकटकी लगाए घूर रहा था।मैं स्तब्ध था।पार्सल के सम्बंध में कई आशंकाएँ मन में अनायास ही उत्पन्न हो रही थी।मसलन-आखिर क्या है इस पार्सल में?किसने भेजा होगा इसे?वगैरह- वगैरह।इतने सालों में तो किसी ने मुझे याद तक नहीं किया तो फिर ये पार्सल…..ह्रदय लगातार आशंकाओं से अटा जा रहा था।खैर सब शंकाओं और विस्मयी प्रश्नों के उत्तर उस पैकेट में ही बंद थे।जो इस वक़्त मेरे हाथों में था।मैं जल्दी -जल्दी पैकेट को खोलने लगा।पैकेट खुलते ही मेरी आँखें विस्मय से खुली की खुली रह गई।दरअसल पार्सल में मेरा वहीं पर्स था जो उस दिन गाड़ी में छूट गया था।मैंने उत्सुकता से सारे दस्तावेजों की गहनता से जांच की।सभी दस्तावेज तथा पर्स में रखी धनराशि ज्यों की त्यों सुरक्षित थी।लिफ़ाफ़े में एक मुड़ा -तुड़ा कागज भी पड़ा हुआ था।शायद उस पर मेरे लिए ही कोई संदेश लिखा हुआ था।मैंने जल्दी से कागज की सिलवटें सीधी की।कागज पर अंकित सन्देश पढ़ने की व्याग्रता हृदय में बढ़ चुकी थी।मैंने उत्सुकता से पत्र पढना शुरू किया।प्रिय महेश नमस्कार!-आशा है आपकी उस दिन की यात्रा सुखद रही होगी?उस दिन जल्दबाज़ी की वजह से आपका पर्स मेरी गाड़ी में ही छूट गया था।जब मेरा ध्यान आपके पर्स पर पड़ा तो मैं पुनः आपको खोजता हुआ उसी बस स्टॉप पर पहुंचा जहां मैंने आपको उतारा था।मैंने आपको काफी तलाश किया मगर आप वहां नहीं थे।शायद आप वहां से जा चुके थे।वापिस बस स्टॉप पर पहुंच कर भी मुझे हताशा ही हाथ लगी।फिर भी मैं निश्चिय कर चुका था कि यह पर्स जल्दी ही आप तक पहुंचा दूंगा।मुझे ज्ञात हो चुका था कि पर्स में आपके कई महत्वपूर्ण दस्तावेज थे।मुझे इस बात का भी आभास था कि पर्स गुम जाने से आप व्यथित होंगें।मैंने आपके पर्स की गहनता से जांच की परंतु मैं आपका दूरभाष नम्बर प्राप्त करने में असमर्थ रहा।भाग्य से आपके एक दस्तावेज पर आपका स्थाई पता छपा हुआ था।तब मैंने बिना विलंब किए फैसला लिया कि आपका पर्स मैं डाक के माध्यम से ही आपको लौटाऊंगा।आशा है जब ये पार्सल आप तक पहुंचेगा तथा जब आप मेरा यह पत्र पढ़ रहे होंगे तब आप अपने खोए सामान को पाकर आनंद का अनुभव अवश्य करेंगे।आपके समान को लौटाकर ऐसे ही आनंद से मैं भी सरोबार हूँ।देरी के लिए क्षमा पार्थी हूँ।-आपका अजनबी सहयात्री। पत्र को पढ़ कर मेरे नेत्र सजल हो आए थे।आज बेईमानी और मक्कारी के इस युग में भी बरसों बाद किसी ईमानदार से पाला जो पड़ा था।अब तक मेरी पत्नी भी मेरी व्यथा भांप चुकी थी।उसने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा-“सब लोग बुरे नहीं होते”।मेरी पत्नी को शायद मेरे “हाँ” रूपी समर्थन की पुरजोर प्रतीक्षा थी।मैंने भी बिना विलंब किए गर्दन हिलाकर उसे अपनी “मौन” स्वीकृति प्रदान कर दी।