सबेरे सबेरे
डेढ़ महीने से कमरों में था घर के अहाते या ड्योढ़ी तक चलना निकलना बस इतना ही या एक आध बार अत्यधिक ज़रूरी काज से घर के आसपास तक ही आना जाना था।आज सबेरे मनोरम शीतल समीर को बहते देख मन उमड़ा कि नहर तक टहल आऊं।सड़क के दोनों ओर पेड़ों को हवा में झूमते पाया पक्षियों का कलरव
व नहर का बहते जल की क्रीड़ा देखे बनती थी।
हल्की -फुल्की चहल पहल के मध्य कुछ पुराने लोगों को टहलते देख हृदय खुशी से भर गया।नीले सफेद आसमां मे लाली थी पंछी दूर तक उड़ते फिर करीब लौटते जान पड़ रहे थे।स्वच्छ जल से भरे कुंभ पीपल बरगद के पेड़ों के नीचे टिकाए हुए थे।यह दृश्य अत्यधिक दृशनीय था चूंकि सूरज दूर कहीं से दर्शन दे रहे थे जिससे आसमां कभी गहरा लाल दिखता तो कभी कम होता हुआ श्वेत।अब ऐसे आत्मीय दृश्य को देखकर हृदय क्यों न गदगद हो मानो किसी ख़ास पुस्तक के ख़ास प्रकरण में हृदय बसा हो।
रविवार की सुबह ख़ास रही।सुबह उठते ही फोन ढूंढने से बेहतर है ऐसे किसी ख़ास पल को ढूंढे ताकि दिन ही बन जाए न कि ज़िन्दगी की झूठी ऊहा-पौह में मशरूफ हो और फिर स्वयं से कहें मेरी तो किस्मत ही ख़राब है।ये तो मन की सोच है कि स्वयं को कैसे प्रसन्न रखा जाए और ये मुझे बखूबी आती है….
मनोज शर्मा