“सबला”
ज़माना नहीं अबला का,
सबला बनना सीख,
अपने अधिकारों के लिए लड़ना सीख,
नौ रूप हैं देवी के,
कब कौन सा है अपनाना?
ये कला भी सीख !
भ्रूण बन कर गर्भ में आई,
तभी से तेरे विरुद्ध छिड़ गई लड़ाई,
टोटका कर लिंग बदलवाना चाहा,
परिक्षण करवाकर पता लगवाया,
फ़िर भी न जाने कैसे,
इस जग में आई,
तुझे, इन ज़ालिमों से कैसे है बचना,
ये कला भी सीख !
ज़माना नहीं अबला का,
सबला बनना सीख,
अपने अधिकारों के लिए लड़ना सीख !
जीव को जीवन देकर तूने,
जीव का उद्धार किया,
उसी जीव के कारण तूने,
आज अपमान का घूँट पिया !
घुट – घुट के जीने से अच्छा,
अपने स्वाभिमान के लिये लड़ना सीख !
ज़माना नहीं अबला का,
सबला बनना सीख,
अपने अधिकारों के लिए लड़ना सीख !
सीढ़ी बना कोई तेरी, ऊपर न चढ़ जाये,
इतनी गणना भी लगाना कहीं,
ठोकरों में रुल न जाये,
रौंद तुझे पैरों के नीचे,
आगे कोई बढ़ न जाये,
दूसरों के कदम से कदम मिलाकर,
आगे बढ़ना सीख !
ज़माना नहीं अबला का,
सबला बनना सीख,
अपने अधिकारों के लिए लड़ना सीख !
माँ है ममता मत छोड़ना,
पर इतना भी समझना,
ममता का सौदा करके,
कोई तुझे न भरमाये !
आँखों में जो सपने हैं,
उन्हें न कोई भुनाये,
सपनों के सहारे,
अपना भविष्य बुनना सीख,
ज़माना नहीं अबला का,
सबला बनना सीख,
अपने अधिकारों के लिए,
“शकुन” लड़ना सीख !
– शकुंतला अग्रवाल, जयपुर